(1) Equality, Freedom and Universal brotherhood (सार्वभौमिक स्नेह)

(2) Complete Non-violence ( पूर्ण अहिंसा)

(3) Truth & Justice (सत्य और न्याय)

(4) Service (सेवा)

(5) Sacrifice (त्याग)


वैदिक काल में किसी भी प्रकार का जन्म आधारित जाति प्रथा नहीं थी, सिर्फ सामाजिक कार्यों और जिम्मेदारियों के कर्म का विभाजन था

नोट- इस लेख के सारे तथ्य इतिहास के पाठ्य पुस्तकों, तथा संस्कृत के पाठ्य पुस्तकों तथा अन्य प्रामाणिक ग्रंथों से लिए गए हैं. अधिक जानकारी के लिए कृपया इतिहास तथा संस्कृत के पाठ्य पुस्तकों को पढ़ें.


वेद तथा भागवत गीता में कर्म आधारित कर्म-विभाग ही बताया गया था और हमारा मूल वैदिक समाज एक जाति विहीन कर्म-विभाजित समाज था जिसमे कोई किसी भी कर्म वाले पिता के यहां जन्म लेकर अपना कोई भी मन चाहा कर्म चुन सकता था तथा उसका समाज में महत्त्व उसके कर्मों से ही था.

देखिये भगवत गीता में क्या लिखा है

ब्राह्मणक्षत्रियविशां  शूद्राणां च परन्तप

कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैगुणैः  

भागवत गीता अध्याय-१८ मोक्ष सन्यास योग - मंत्र- 41 

अर्थ - हे परन्तप ! ब्राह्मण, क्षत्रिय, और वैश्यों के तथा शूद्रों के कर्म, स्वभाव से उत्पन्न गुणों द्वारा विभक्त किये गए हैं.

भागवत गीता में श्री कृष्ण ने स्पष्ट रूप से आदेश दिया है कि समाज में कार्य का विभाजन (जैसे ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि : ये कार्य श्रेणियां हैं) व्यक्ति के स्वभावगत गुणों के अनुसार हैं (आज के किसी उद्यम में कार्यों का विभाजन जैसे- मैनेजर, अधिकारी, सुरक्षा कर्मी, वित्त लिपिक, श्रमिक और सहायक आदि जैसे नौकरियों का विभाजन उन पदों के लिए आवंटित कार्यों के आधार पर किया गया है और नौकरी व्यक्तिगत क्षमताओं पर मिलती है जो कि स्वभावगत गुणों पर निर्भर होते हैं).

किसी भी वैदिक ग्रंथों में कहीं भी ऐसा नहीं कहा गया है कि समाज में कार्यों का विभाजन वंशानुगत है, या जन्म के अनुसार है. वस्तुतः जाति प्रथा एक अवैदिक विचार है.

यद्यपि गुण-कर्म आधारित कर्म-विभाजन वाले समाज के लिए नियमों का वर्णन करने वाली मनुस्मृति कि रचना २०० से ३०० ई पू में हो चुकी थी, फिर भी जन्म आधारित जाति प्रथा का उस समय तक कोई चिह्न भी नहीं था.

मौर्य वंश के समय बौद्ध धर्म को राज्य का संरक्षण और प्रोत्साहन प्राप्त था. मौर्य वंश के अंतिम राजा बृहद्रथ को मार कर उसके सेनापति पुष्यमित्र शुंग सं १८५ ई.पू. को राजा बन गया. उसने बौद्ध धर्म को हटा कर फिर से यज्ञ आदि कर्मकांडों को राज्य का संरक्षण दिया. अभी तक गुण-कर्म आधारित कर्म-विभाजन वाले समाज में सभी वर्गों का समान स्थान था. कोई भी व्यक्ति किसी भी कर्म विभाग वाले परिवार में जन्म लेने के बावजूद, किसी भी दुसरे कर्म-विभाग को चुन सकता था.

महर्षि वेदव्यास जी मछुआरी स्त्री के पुत्र थे. फिर भी उनको वेदाध्यन की स्वतंत्रता थी और जब उन्होंने वेदों का संपादन और वर्गीकरण किया, महाभारत ग्रन्थ की रचना की, तो उनको उनके ज्ञान के कारण ऋषियों से भी ऊपर महा ऋषि यानि महर्षि कि उपाधि दी गयी.

महर्षि वाल्मीकि जी जंगल के आखेटक परिवार से थे. वोह जंगल में शिकार का काम करते थे. फिर भी उनको वेदाध्यन की स्वतंत्रता थी और जब उन्होंने रामायण की रचना की, तो उनको उनके ज्ञान के कारण ऋषियों से भी ऊपर महा ऋषि यानि महर्षि कि उपाधि दी गयी.

महाभारत में कर्ण की कथा से भी उस समय की जाति विहीन समाज का पता चलता है.

कर्ण को उनकी माता कुंती द्वारा जन्म के तुरंत बाद त्याग देने और नदी में बहा देने के बाद, उनको रथ हांकने वाले व्यक्ति अधिरथ ने पाया और घर ले जाकर पला पोसा. कर्ण रथ हांकने वाले कार्मिक वर्ग की संतान माने जाने के कारण सूत-पुत्र कहलाये.

जब कौरव और पांडवों की शिक्षा पूरी हो गयी तब द्रोणाचार्य ने एक समारोह का आयोजन किया जिसमे कौरव और पांडवों ने शस्त्र विद्या का प्रदर्शन किया. वहां कर्ण ने अर्जुन से भी अच्छी धनुर्विद्या जानने का दावा किया और अपने युद्ध कौशल के प्रदर्शन की बात कही. लेकिन उसको इसलिए अनुमति नहीं मिली क्योंकि वोह रथ चलाने वाले का पुत्र सूत-पुत्र था.

जब दुर्योधन ने यह सुना तो उसने अपने युवराज होने के अधिकार का उपयोग करते हुए कर्ण को अंग प्रदेश का राजा घोषित कर दिया.  इसके बाद कर्ण ने अपने युद्ध कौशल का प्रदर्शन वहां किया. इससे पता चलता है कि सूत-पुत्र भी राजा बन सकता था और उस समय जन्म-आधारित जाति प्रथा नहीं थी वरन कर्म-आधारित विभेद था.

उसी समय कर्ण ने अर्जुन से द्वन्द-युद्ध का भी आह्वान किया, लेकिन युद्ध की तयारी और वाद विवाद के बीच सूर्यास्त हो जाने के कारन वोह द्वन्द युद्ध नहीं हो पाया. लेकिन इससे पता चलता है कि उस समय जन्म-आधारित जाति प्रथा नहीं थी और इसीलिए एक निम्न कार्मिक वर्ग से आया हुआ सूत पुत्र भी क्षत्रिय बन सकता था.

यद्यपि कर्ण एक निम्न श्रेणी माने जाने वाले रथ हांकने वाले का सूत-पुत्र था, फिर भी उसके अंग प्रदेश का राजा बनने के पश्चात् उसके साथ क्षत्रिय की भातिं वर्ताव होने लगा. और इसी कारण उसे बाकी क्षत्रियों की तरह द्रौपदी के स्वयंवर में धनुर्वेध के लिए आमंत्रित भी किया गया था और कर्ण बाकी क्षत्रियों के सामान उनके साथ ही बैठा था. लेकिन जब कर्ण धनुर्वेध के लिए उठा तो द्रौपदी ने एक रथ चलाने वाले के पुत्र से विवाह से इंकार कर दिया.

यह वैसा ही था अगर आज किसी अरबपति धनी व्यक्ति की बेटी किसी ड्राइवर के बेटे से विवाह को इंकार कर देवे.

चूंकि उस समय विवाह के लिए सिर्फ और सिर्फ कन्या के इच्छा को ही सर्वोपरि माना जाता था, इसी लिए कर्ण को धनुर्वेध से हटना पड़ा. 

इससे पता चलता है की सूत-पुत्र भी क्षत्रिय बन सकता था और उस समय जन्म-आधारित जाति प्रथा नहीं थी वरन कर्म-आधारित और धनी-निर्धन का ही विभेद था.

चंद्र गुप्त मौर्य (304 ई.पू.), जिन्होनें सिकंदर के सेनापति सेल्यूकस को हराया था और नन्द वंश को हरा कर पूरे भारतीय भूभाग (अफगानिस्तान से लेकर के आसाम तक) के प्रथम सम्राट बने थे, वोह एक गांव के चरवाहे के पुत्र थे.

मगध के सम्राट धनानंद से अपमानित होकर चाणक्य जब तक्षशिला जा रहे थे उन्होंने चन्द्रगुप्त को गांव के बच्चों के साथ राजा-प्रजा का खेल खेलते देखा जिसमें बालक चन्द्रगुप्त स्वयं एक प्रभावशाली राजा बना हुआ था. उस खेल में बालक चन्द्रगुप्त के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर चाणक्य ने उनको उनके माता-पिता से शिक्षा दिलाने के आधार पर मांग लिया, उसे तक्षशिला ले गए, विद्याध्यन कराया और फिर विदेशी यूनानियों को हरा कर देश से बाहर निकालने के लिए प्रेरित किया.

अतः हम देखते हैं कि हमारे समाज में एक गैर ब्राह्मण या गैर क्षत्रिय का पुत्र को, एक शिक्षक (आज के अनुसार ब्राह्मण) के द्वारा चुन कर, शिक्षा का ज्ञान देकर, देश का सम्राट बनाने की परंपरा थी. न तो चाणक्य को इस बात में कोई ऐतराज लगा न किसी और ने भी चन्द्रगुप्त  के सम्राट बनने पर ऐतराज जताया. यहां तक कि पुराणों में भी इस बात पर किसी ऐतराज का कोई जिक्र नहीं है.

शुंग वंश ने पहली बार इस परंपरा को तोड़ कर पुरोहित वर्ग, जो कि यज्ञ आदि करते थे, शिक्षा देने का कार्य करते थे और राजा को सलाह भी देते थे, उन पुरोहित वर्ग (ब्राह्मणो) को समाज में सबसे ऊंचा स्थान दे दिया.

फिर भी समाज गुण-कर्म आधारित कर्म-विभाजन वाला ही था. अभी भी जन्म आधारित जाति प्रथा का उस समय तक कोई कल्पना भी नहीं थी.

२४० ई. में गुप्त वंश (चंद्र गुप्त विक्रमादित्य वाले) का शासन  आया. काफी इतिहासकार गुप्त वंश को वैश्य वर्ग से आया मानते हैं.

इसी गुप्त वंश के समय ही जन्म आधारित जाति प्रथा का उदय हुआ और गुप्त वंश ने ही ऐसी जन्म आधारित जाति प्रथा को बढ़ावा दिया. इस प्रकार हम देखते हैं की २४० ई. के आस-पास जाकर जन्म आधारित उस जाति प्रथा का उदय हुआ जिसमें कोई सिर्फ अपने पिता का व्यवसाय ही चुन सकता था, किसी को भी अपना पैतृक व्यवसाय को छोड़ कर दूसरा व्यवसाय चुनने की स्वतंत्रता ख़त्म कर दी गयी और राजा और राज्य की ओर से इसको कड़ाई से लागू किया गया.

अब प्रश्न यह उठता है कि ऐसा बदलाव समाज में लाने की आवश्यकता क्यों पड़ी ?

इसका कारण है कि चन्द्रगुप्त मौर्य के बाद से ही विद्रोह करके किसी भी स्थापित राजा को मारकर या पदच्युत करके किसी भी समर्थ व्यक्ति द्वारा राज्य पर अधिकार किया जाने लगा था. मौर्य वंश के अंतिम राजा बृहद्रथ को भी उसके सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने मार कर राज्य हथिया लिया था. इस तरह राजाओं को हमेशा यह भय सताने लगा कि किसी भी प्रजा जन द्वारा कभी भी उनको मार कर राज्य छीना जा सकता है.

उन्होंने सोचा कि अगर जन्म आधारित जाति प्रथा का प्रचलन किया जाये तो समाज के क्षत्रिय वर्ग के आलावा बाकि सभी वर्ग के लोगों को उनकी प्रतिद्वंदिता से बाहर रखा जा सकता है. रही बात क्षत्रिय वर्ग की, तो आपस में शादी-ब्याह के संबंधों द्वारा क्षत्रिय राजाओं से मित्रता करके अपने राज्य के खोने का डर कम किया जा सकता है.

इस तरह गुप्त वंश के समय से जन्म आधारित जाति प्रथा को राज्य शासन द्वारा लागू किया गया.

यद्यपि जन्म आधारित जाति प्रथा की शुरुआत हो गयी थी, और अब कोई अपना पैतृक व्यवसाय छोड़ कर दूसरा व्यवसाय नहीं चुन सकता था, पर फिर भी समाज में कोई ज्यादा परेशानी नहीं थी क्योंकि निम्न वर्गों के साथ कोई विशेष दुर्व्यवहार नहीं होता था. समाज के सभी वर्ग एक दुसरे का सम्मान करते थे और एक दुसरे के हित का पूरा ख्याल रखते थे, आपस में शादी-ब्याह होने में भी ज्यादा दिक्कत नहीं होती थी. यह अलग बात थी कि राजकुमारियाँ पति के रूप में किसी दुसरे राजा या राजकुमार को ही चाहतीं थीं अतः अपने स्वयंवर में सिर्फ राजा और राजकुमार को ही आने की पक्षधर थीं.

जन्म आधारित जाति प्रथा की कठोरता और दुर्व्यवहार शुरू होने के प्रमाण ६५० ईस्वी के बाद ही मिलते हैं. अतः आज की इस विकृत जन्म आधारित जाति प्रथा जो कि हमारे समाज की वास्तविक प्रथा नहीं है, जिसका वेदों में कोई उल्लेख नहीं है, जो कि एक अवैदिक प्रथा है, उसकी शुरुआत ६५० ईस्वी के बाद हुयी.

चूंकि अभी तक या तो जन्म आधारित जाति प्रथा थी ही नहीं (चन्द्रगुप्त मौर्य के समय), या, जाति प्रथा के आधार पर सामाजिक दुर्व्यवहार नहीं था (चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के समय)  अतः जितने भी विदेशी आक्रमण हुए थे जैसे की- ग्रीक (चन्द्रगुप्त मौर्य), शक (चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य), हूण, कुषाण इत्यादि, उन सभी को भारतियों ने अंततः युद्ध में हरा दिया था, क्योंकि राष्ट्र की रक्षा के लिए सभी वर्ग युद्ध में शस्त्र उठ सकते थे और राष्ट्र में समान भागीदारी होने के कारण सभी को राष्ट्र की सुरक्षा का समान ख्याल था.

लेकिन ६५० ईस्वी के बाद जन्म आधारित जाति प्रथा की कठोरता और दुर्व्यवहार शुरू होने के बाद, निम्न वर्ग के लोगों का दिल टूट गया. ऊपर से उनको क्षत्रियों कि तरह शस्त्र चालन सीखने पर पाबन्दी के होने के कारण उनका युद्ध कौशल भी निम्न स्तर का हो गया.

इसका सीधा असर आने वाले समय में विदेशी हमलावरों के साथ युद्ध में हुआ.

पृथ्वीराज चौहान ने विदेशी हमलावर मुहम्मद गौरी को कई बार हराया. गौरी हर बार अपने देश जाकर युद्ध में मारे गए सैनिकों कि जगह नए कुशल सैनिक ले आता था. लेकिन पृथ्वीराज की सेना हर बार छोटी होती गयी क्योंकि क्षत्रिय परिवारों से फिर से नए बच्चों के जन्म लेकर युद्ध कुशल बनने में काफी समय लगता था. और आखिर पृथ्वीराज चौहान को पराजित होकर मृत्यु का सामना करना पड़ा.

आगे के समय में भी, इसी जाति वाद के कारण, विदेशी शत्रुओं से सिर्फ क्षत्रिय ही लड़ते थे, और बाकि लोग तमाशा देखते थे. क्षत्रियों के हार जाने पर पूरा समाज गुलाम बन जाता था.

आज यह समय आ गया है कि हम हजारों सालों से चली आ रही मूर्खता को पहचानें, उस मूर्ख परंपरा को खुल के विरोध करें, उन मूर्ख लोगों के मस्तिष्क भ्रम को दूर कर उनको मनुष्यता के मार्ग पर ले आएं  और फिर से एक बार हमारे मूल वैदिक संस्कृति के अनुरूप जाति विहीन स्वंत्रततामूलक सत्य आधारित कर्म आधारित समाज कि स्थापना करें. 

यहां एक ध्यान देने योग्य विशेष बात यह है कि आज के हिंदुस्तानी समाज को जातिवाद के कारण किसी अपराधबोध या कुंठा ग्रस्त होने की कोई जरुरत नहीं है क्योंकि इस समाज ने जातिवाद को नहीं बनाया था वरन जातिवाद को समाज पर लादा गया था.

या यों कहें कि समाज ने वही किया जो कि उसे सिखाया गया या जो उसे करने के लिए कहा गया. समाज ने तो सिर्फ कुछ लोगों द्वारा बताये गए नियमों को धर्म का भय दिखाने के कारण माना था.अतः दोषी और अपराधी तो वोह लोग हैं जिनके ऊपर समाज के मार्गदर्शन कि जिम्मेदारी थी.

यह वैसी ही बात है जैसे कि यूरोप के धर्म ग्रंथों में पृथ्वी को केंद्रबिंदु और सूरज को पृथ्वी के चारों ओर घूमने वाला बताया गया था और यूरोप का समाज वही मानता गया जो उसको धर्म के नाम पर सिखाया गया.

इसलिए जब गैलिलियो  ने धर्म ग्रंथों की शिक्षा के विरुद्ध सूरज को केंद्रबिंदु और पृथ्वी को सूरज के चारों ओर घूमने वाला बताया और इसके फलस्वरूप जब धर्माचार्यों ने गैलिलिओ को दण्डित किया और प्रताड़ित किया था तो जनता ने धर्म गुरुओं का ही साथ दिया था.

लेकिन जब समाज को यह पता चला कि यूरोप के धर्म ग्रंथों में असत्य लिखा है तो उन्होंने उस असत्य का साथ छोड़ दिया और गैलिलिओ के शिक्षा पर चलने वाले अन्य वैज्ञानिकों का साथ दिया.

समाज तो हमेशा सत्य के मार्ग पर चलने को आतुर रहता है क्योंकि समाज को अच्छी तरह मालूम होता है की सत्य का रास्ता ही प्रगति और शांति की और जाता है जबकि असत्य का रास्ता अधःपतन और विनाश की ओर जाता है.

आप सभी लोगों का शुभ हो ! पूरे विश्व के लोगों का शुभ हो ! इस जगत में जो कुछ भी हो सब शुभ हो !

भूत काल में हुयी घटनाओं पर हमारा विचार क्या होना चाहिए

हमारी वैदिक संस्कृति का आधार मुख्य रूप से तीन ग्रन्थ हैं-

१- वेद

२-उपनिषद्

३-भागवत गीता

 

अगर किसी अन्य ग्रन्थ में कोई बात उपरोक्त ग्रंथों के विचारों के विरुद्ध पाई जाती है तो उसे अस्वीकार तथा बहिष्कार करना चाहिए.

 

भागवत गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा था कि समाज का कर्म विभाजन उन्होंने किया है लेकिन वह विभाजन जन्म के आधार पर नहीं, वरन कर्म के आधार पर है-

 

ब्राह्मणक्षत्रियविशां  शूद्राणां च परन्तप

कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैगुणैः  

भागवत गीता अध्याय-१८ मोक्ष सन्यास योग - मंत्र- 41 

 

अर्थ - हे परन्तप ! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्रों के कर्म को स्वभाव से उत्पन्न गुणों द्वारा विभक्त किये गए हैं.

 

भागवत गीता में श्री कृष्ण ने स्पष्ट रूप से आदेश दिया है कि समाज में कार्य का विभाजन (जैसे ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि : ये कार्य श्रेणियां हैं) व्यक्ति के स्वभावगत गुणों के अनुसार हैं.

 

आज भी किसी उद्यम में कार्यों का विभाजन जैसे- मैनेजर, अधिकारी, सुरक्षा कर्मी, वित्त लिपिक, श्रमिक और सहायक आदि जैसे नौकरियों का विभाजन उन पदों के लिए आवंटित कार्यों के आधार पर किया गया है और आज भी नौकरी व्यक्तिगत क्षमताओं पर मिलती है जो कि स्वभावगत गुणों पर निर्भर होते हैं. यही आज का मैनेजमेंट का सिद्धांत भी कहता है.

 

इससे पता चलता है कि आज के मैनजेमेंट के सिद्धांतों को हजारों साल पहले ही भागवत गीता में बता दिया गया था.

 

अतः भागवत गीता पर जाति भेद का आरोप लगाना तो मूर्ख लोगों के बदमाशी का प्रयास ही है.

 

किसी भी वैदिक ग्रंथ में कहीं भी ऐसा नहीं कहा गया है कि समाज में कार्यों का विभाजन वंशानुगत है, या जन्म के अनुसार है.  वस्तुतः जाति प्रथा एक अवैदिक विचार है.

 

वेदों में सृष्टि की हर रचना को उसी एक ईश्वर का ही रूप बताया गया है-

 

एषो ह देव: प्रदिशोनु सर्वा: पूर्वो ह जात: स उ गर्भे अन्त:  ।

स एव जात: स जनिष्यमाण: प्रत्यङ् जनास्तिष्ठति सर्वतोमुख: ॥

यजुर्वेद- अध्याय-32 - मंत्र- 4

 

भावार्थ  –

यह उत्तम स्वरूप (सृष्टिकर्ता परमेश्वर) निश्चय से सब दिशा उपदिशाओं में व्याप्त हैं । भूतकाल में कल्प के आदि में निश्चय ही सर्व प्रथम  प्रकट हुए (थे) । वह ही (अभी) जन्म के लिए माता के गर्भ में अंदर हैं, वह ही (वर्त्तमान में भी) प्रकट (हो रहे) हैं (और) भविष्य में भी (सदा) वह (ही) प्रकट होने वाले हैं। हे मनुष्यों ! (वह) सबका द्रष्टा, प्रत्येक पदार्थों में (जड़-चेतन- प्राणी मात्र व मनुष्यों में भी) व्याप्त होकर अवस्थित है ।

 

जब वेदों में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि सृष्टि की हर रचना के रूप में वही एक ईश्वर ही प्रकट हो रहा है तो सारे मनुष्य भी उसी ईश्वर के ही रूप हुए, तो फिर मनुष्यों में भेद कैसे हो सकता है ?

 

यहां स्पष्ट रूप से वेद समानता का आदेश दे रहे है तो फिर वेदों पर जाति भेद का आरोप तो मूर्ख लोगों का फैलाया झूट ही है.

 

वेदों का एक और मन्त्र देखिये-

 

हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम् ।

योसावादित्ये पुरुष: सोसावहम् ओ३म् खं ब्रह्म ॥

यजुर्वेद- अध्याय-40 - मंत्र- 17

 

भावार्थ  –

सोने जैसे ज्योतिःस्वरूप स्वर्णिम रक्षक पात्र (आवरण) से अविनाशी सत्य (आत्म और परमात्म तत्व) का मुख ढका हुआ है । जब वह सुनहरा आवरण हटता है तो यह पता लगता हैं कि वह जो  सूर्य मण्डल में पूर्ण परमात्मा सृष्टिकर्ता परमेश्वर हैं, वह परोक्ष रूप से या आत्म रूप से मैं ही हूँ ।

 

जब वेदों में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि सृष्टि की हर रचना उसी एक ईश्वर का ही रूप है, सारे मनुष्य भी उसी ईश्वर का ही रूप हैं तो फिर मनुष्यों में भेद कैसे हो सकता है ?

 

हाँ, कर्म के हिसाब से कर्म-भेद हो सकता है जो कि आधुनिक मैनेजमेंट का सिद्धांत भी कहता है.

 

वेदों का एक और मन्त्र देखिये जो कि समानता की बात करता है-

 

समानि प्रपा स वोऽन्नभाग: समाने योक्त्रे सह वो युनज्मि ।

सम्यञ्चोऽग्निं सपर्यतारा नाभिमिवाभित: ॥

अथर्ववेद- कांड-3 सूक्त-30 - मंत्र- 6

 

भावार्थ –

हे मनुष्यों ! तुम लोगों का जल पीने का स्थान एक हो, तुम लोगों का अन्न का भाग भी साथ साथ हो. मैं तुम लोगों को एक ही बन्धन में साथ साथ जोड़ता हूँ । जैसे नाभि में चारों ओर चक्र के अरे (तीलियाँ) जड़े होते हैं उन अरों के समान, मिल जुलकर उस एक सृष्टिकर्ता परमेश्वर ब्रह्म का पूजन व अग्रिहोत्र करो ।

 

अगर सभी लोग एक ही जगह से जल पी रहे हैं, एक ही अन्न को साथ साथ बैठ के खा रहे हैं, सभी एक ही बंधन बंधे हुए हैं, तो फिर सारे मनुष्य एक समान ही हुए, उनमें किसी भी तरह का भेद (जाति भेद) कैसे हो सकता है ?

 

आखिर में यह भी स्पष्ट करना चाहूंगा कि हमारे पूर्वजों में श्रेष्ठ जन भी हुए हैं और दुष्ट जन भी हुए हैं. श्रेष्ठ जन जैसे युधिष्ठिर इत्यादि, दुष्ट जन जैसे दुर्योधन इत्यादि जिसने अपनी मां के समान पूज्य बड़ी भाभी को भरी सभा में नग्न करना चाहा था.

 

दुष्ट जनों ने बहुत गलत काम किये थे, बहुत अत्याचार किया थे, बहुत गलत नियम बनाये थे और बहुत गलत बातें लिखी थीं, इस सत्य को हम सभी को स्वीकार करना होगा.

 

लेकिन हमें यह भी तय करना पड़ेगा कि क्या हम श्रेष्ठ जनो जैसे युधिष्ठिर की संतानें हैं या दुष्ट जनों जैसे दुर्योधन की संतानें हैं ?

 

जो दुर्योधन की संतानें हैं उनको अपने पूर्वजों पर शर्म आना चाहिए.

 

हम तो युधिष्ठिर की संतानें हैं, हमें अपने पूर्वजों पर शर्म कैसी ?


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