सत्य ही ब्रह्म है 

तद्वै तदेव तदास सत्यमेव स यो हैतं मह्य्द्यक्षं प्रथमजं वेद

सत्यं ब्रह्मेति जयतीमांल्लोकान् जित इन्नवसावसद्य एवमेतं

मह्य्द्यक्षं प्रयमजं वेद सत्यं ब्रह्मेति सत्यं ह्येव  ब्रह्म ।।१।।

बृहदारण्यक उपनिषद् - पंचम अध्याय - चौथा ब्राह्मण - श्लोक- 1

संधि विच्छेद के बाद –

तद् वै  तद् एव   तद् आस सत्यम् एव सः यः ह एतम् महद् यक्षम् प्रथमजम् वेद

सत्यम् ब्रह्म इति जयति इमान् लोकान् जितः इत् नु असौ -असत् यःएवम् एतम्

महद् यक्षम् प्रथमजम् वेद सत्यम् ब्रह्म इति सत्यम् हि एव ।।१।।

शब्दार्थ –              

तद् वै  – तो निश्चय से; तद् एव   – वह (हृदय में) ही; तद् -- वह; आस – बैठा था, विद्यमान था; सत्यम् – सत्य (सत्य रूप ब्रह्म); एव -- ही; सः --- वह; यः ह – जो तो; एतम् -- इस; महद् ---  बड़े, महनीय, महिमावाले; यक्षम् – पूजनीय, यजनीय; प्रथमजम् – सब से पूर्व प्रगट होनेवाले, जगत रचना से भी पहिले वर्त्तमान; वेद – जानता है (कि); सत्यम् ब्रह्म इति --- सत्य-ब्रह्म है इस रूप में; जयति – जीत लेता है; इमान् – इन; लोकान् – लोकों को; जितः --- पराजित; इत् नु – निश्चय ही; असौ -- यह (मूर्ख); असत् – सत्ता से रहित, अविद्यमान है; यः -- जो; एवम् – इस प्रकार; एतम् महद् यक्षम् प्रथमजम् वेद सत्यम् ब्रह्म – इस महनीय पूजनीय, प्रथम विद्यमान, सत्य-ब्रह्म को (असत्) जानता है; सत्यम् हि एव ब्रह्म --- क्योंकि सत्य ही ब्रह्म है अथवा ब्रह्म ही सत्य है (सत्य – ब्रह्म एक ही है) ।।१।।

शब्दशः अर्थ –

तो निश्चय से वह (हृदय में) ही वह विद्यमान था (जो) सत्य (सत्य रूप ब्रह्म) ही (है) वह. जो तो इस महिमावाले पूजनीय, जगत रचना से भी पहिले वर्त्तमान जानता है (कि) सत्य-ब्रह्म है इस रूप में, (वह) जीत लेता है इन लोकों को. (और) पराजित निश्चय ही (हो जाता है) यह (मूर्ख), असत या अविद्यमान (जानता है) जो इस प्रकार इस महनीय पूजनीय, प्रथम विद्यमान, सत्य-ब्रह्म को. क्योंकि सत्य ही ब्रह्म है (अथवा ब्रह्म ही सत्य है या सत्य और ब्रह्म एक ही है) ।।१।।    

वोह एकमात्र सृष्टिकर्ता ईश्वर (ब्रह्म) हमारे भीतर ही है

यः पूर्वं तपसो जातमदभ्यः पूर्वमजायत।

गुह्यं प्रविश्य तिष्ठन्तं यो भूतेभिवर्यपश्यत एतद्वै तत् ।।६।।       

कठोपनिषद् - चतुर्थ् वल्ली -श्लोक- 6

संधि विच्छेद के बाद –

यःपूर्वम् तपसः जातम् अदभ्यः पूर्वम् अजायत

गुह्यम् प्रविश्य तिष्ठन्तम् यः भूतेभिः व्यपश्यत एतद् वै तद् ।।६।।   

शब्दार्थ –    

यः --- जो; पूर्वम् -- पहले; तपसः --- तप (तीव्र क्रिया) से; जातम् --- उत्पन्न हुआ; अदभ्यः – जलों से; पूर्वम् -- पहले; अजायत ---- उत्पन्न हुआ, विद्यमान था; गुह्यम् – गुफा, छिपने का स्थान, बुद्धि या हृदय; प्रविश्य – प्रवेश करके; तिष्ठन्तम् – ठहरे हुए को, विद्यमान को; यः -- जो; भूतेभिः --- पंचभूतों के द्वारा; व्यपश्यत – देखता है; एतद् – (इस प्रकार वर्णित) यह (ही); वै – निश्चय से; तद् – वह (ब्रह्म है) ।।६।।     

शब्दशः अर्थ –

जो पहले तप (तीव्र क्रिया) से उत्पन्न हुआ, जलों से पहले विद्यमान था. गुफा जैसे छिपने के स्थान (बुद्धि या हृदय) (में) प्रवेश करके विद्यमान को जो पंचभूतों के द्वारा देखता है (साक्षात् किया जाता है) (इस प्रकार वर्णित) यह (ही) निश्चय से वह (ब्रह्म) है ।।६।।     

भावार्थ –

जो ‘तप” से पहले उत्पन्न हुआ, “जल” से पहले उत्पन्न हुआ (दोनों से पूर्व था, जड़-चेतन से पहले था)। (वह पञ्च-भूतों के साथ) गुहा में विद्यमान है। (वह कहीं दूर नहीं बैठा, यहीं हमारे सामने जो – कुछ इन्द्रियों से दिख  पड़ता है वही उसकी गुफा है, उसी में विद्यमान है, इन पञ्च-भूतों की उसने ओट ले रखी है, बैठा तो वह इन्हीं के साथ है, यही उसकी गुफाएं हैं). (इस प्रकार से जो ब्रह्म को स्वयं में, इस सृष्टि की हर रचना में) देख लेता है, (वह कह उठता है)  अरे ! यह ही वह (ब्रह्म) है ।।६।।

सारी सृष्टि और हम सभी उसी ब्रह्म के ही रूप हैं       

हिरण्मयेन पात्रेण सत्स्यापिहितं मुखम्।

तत्त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये।।

पूषन्नेकर्षे यम सूर्य प्राजापत्य व्यूह रश्मीन् समूह तेजो यत्ते रूपं

कल्याणतमं तत्ते पश्यामि। योऽसावसौ पुरुषः सोहऽमस्मि।।

ईशावास्योपनिषद् - श्लोक- 15,16

 

संधि विच्छेद के बाद –

हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्य अपिहितम् मुखम् ।

तत् त्वम् पूषन् अपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये ।।

पूषन् एकर्षे यम सूर्य प्राजापत्य व्यूह रश्मीन् समूह तेजः यत् ते रूपम् ।

कल्याणतमम् तत् ते पश्यामि यः असौ असौ पुरुषः सः अहम् अस्मि ।।

शब्दार्थ –

हिरण्मयेन – सुवर्ण (अच्छा रंग) से बने हुए, चमक-दमक वाले, आकर्षक; पात्रेण --- बर्तन से, ढकने से; सत्यस्य --- सत्य का; अपिहितम् --- बन्द, ढका हुआ; मुखम् -- मुख; तत् -- उसको; त्वम् --- तू (उपासक) ; पूषन् ! --- पोषण करनेवाले, पोषण चाहने वाले !; अपावृणु – दूर हदा दे; सत्यधर्माय --- सत्य – धर्म के लिए; दृष्टये --- देखने के लिए, जानने के लिए ।।

पूषन् – हे पुष्टि देनेवाले !; एकर्षे – हे अद्वितीय ऋषि (साक्षाद् – द्रष्टा); यम – हे चराचर को नियम में रखनेवाले; सूर्य -- हे सबको प्रेरणा देनेवाले, प्राजापत्य -- हे प्रजाओंके पालक अधिष्ठाता; व्यूह – फैला दे, छितरा दे; रश्मीन् – किरणों को, ज्ञान- ज्योति को; समूह – समेट ले, इकट्ठा कर ले; तेजः -- तेज; यत् -- जो; ते -- तेरा; रूपम् – स्वरूप; कल्याणतमम् – अत्यन्त कल्याणकारी; तत् -- उसको; ते -- तेरा; पश्यामि – देखता हूं, जानता हूँ; यः -- जो; असौ -- यह; असौ --- यह; पुरुषः – परमात्मा; सः --- वह; अहम् -- मैं; अस्मि --- हूँ ।।

 

शब्दशः अर्थ –

सुवर्ण (सुनहरे रंग) से बने हुए (चमक-दमक वाले, आकर्षक) बर्तन से (ढकने से) सत्य का ढका हुआ मुख (है). उसको तू (हे) पोषण चाहने वाले (उपासक) ! दूर हटा दे. सत्य – धर्म के लिए, (उसको) देखने के लिए ।।

हे पुष्टि देनेवाले ! हे अद्वितीय ऋषि (साक्षात  – द्रष्टा) हे चराचर को नियम में रखनेवाले, हे सबको प्रेरणा देनेवाले, हे प्रजाओंके पालक अधिष्ठाता, फैला दे (छितरा दे) किरणों को (ज्ञान- ज्योति को), समेट ले (इकट्ठा कर ले) तेज (को). जो तेरा स्वरूप अत्यन्त कल्याणकारी (है) उसको  तेरा (स्वरुप को) देखता हूं. जो यह परमात्मा (है) वह मैं (ही) हूँ ।।

भावार्थ –        

हिरण्मय चमक-दमकवाले ढकने से सत्य का मुख ढका हुआ है। हे पूषन् ! –अपनी पुष्टि अर्थात् पोषण चाहने वाले उपासक ! --- अगर तू सत्य-धर्म को देखना चाहता है तो उस ढक्कन का, आवरण का अपवरण कर दे, उस ढक्कन को हटा दे, पर्दे को उठा दे ।।

हे ‘पूषन्” – पुष्टि देनेवाले! ‘एकर्षे”-- ऋषियों में एक – अनोखे! ‘यम” – नियमन करनेवाले ! ‘सूर्य” -- प्रचण्ड  प्रकाशमान ! ‘प्राजापत्य”-- प्रजाओंके पति ! आपकी रश्मियों का व्यूह चारों तरफ फैल रहा है। उन्हीं रश्मियों के कारण प्रकृति के नाना रूप प्रकाशमान हो रहे हैं। मैं यह प्रकाश आपका न समझकर प्रकृति का समझ रहा हूं, और इसीलिए प्रकृति को ही सब-कुछ समझ बैठा हूं। आप अपनी रश्मियों को समेटिये ताकि मैं आपके कल्याणतम तेजोमय रूप के दर्शन कर सकूं। अ-हा ! आपकी रश्मियों के, तेज के, प्रकाश के एक जगह सिमट जाने से जो आपका कल्याणतम तेजस्वी पुरुष – रूप प्रकट हुआ, वह कितना ज्योतिर्मय है ! मैं भी वही हूं – मैं भी ज्योतिमय पुरुष हूं ।। 

 

(जैसे ब्रह्मांड में ब्रह्म – पुरुष के प्रकाश से प्रकृति प्रकाशमान हो रही है, मैं ब्रह्म को भूलकर प्रकृति को सब-कुछ समझ बैठा हूं, वैसे पिंड में आत्म-पुरुष के प्रकाश से शरीर प्रकाशमान हो रहा है, मैं आत्म-तत्त्व को भूलकर शरीर को सब-कुछ समझ बैठा हूं। ब्रह्मांड में जो-कुछ है वही पिंड में हैं, जो पिंड में है वही ब्रह्मांड में है – इस प्रकार वर्णन करना उपनिषदों की शैली है। इसी शैली के अनुसार यहां ब्रह्मांड तथा पिंड दोनों में ‘पुरुष’ – शब्द का प्रयोग करके वर्णन किया गया है।)

ब्रह्म ज्ञानी सारी सृष्टि के जड़-चेतन सभी को अपनी आत्मा में ही ब्रह्म समान देखता है

यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति ।

सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते ।। ६ ।।

ईशावास्योपनिषद् - श्लोक- 6

संधि विच्छेद के बाद –

यः तु सर्वाणि भूतानि आत्मनि एव अनुपश्यति

सर्वभूतेषु च आत्मानम् ततः न विजुगुप्सते ।। ६ ।।

शब्दार्थ –

यः – जो; तु -- तो; सर्वाणि – सब, सारे; भूतानि – पाँच जड़ भूतों को, चेतन प्राणियों को; आत्मनि – आत्मा में, अपने में; एव -- ही; अनुपश्यति – गहराई से – बारीकी से देखता है; सर्वभूतेषु – सब भूतों या प्राणियों में; च -- और; आत्मानम् – आत्मा को, अपने को; ततः – उससे, उस कारण से, उसके बाद; न -- नहीं; विजुगुप्सते – पाप करता है, घृणा करता है, रक्षा की इच्छा करता है ।। ६ ।।

शब्दशः अर्थ –

जो तो सारे (पाँच जड़) भूतों को (चेतन प्राणियों को) (अपनी) आत्मा में (अपने में) ही देखता है ।

सब भूतों (या प्राणियों) में और अपने को (एक समान ही) देखता है, (सृष्टिकर्ता ईश्वर यानि ब्रह्म के समान ही देखता है) उससे (कभी भी) पाप कर्म नहीं होता है ।।६।।

भावार्थ –

देखना वीक्षण है, ‘गहराई’ से देखना – एक-एक वस्तु में अन्दर से देखना कि वह इसमें है या नहीं ‘अनु-वीक्षण’ है। जो इस प्रकार के  ‘अनु-वीक्षण’ से सब भूतों को आत्मा में ही देखता है, और आत्मा को सब भूतों में देखता है वह इस अनु-वीक्षण के कारण पाप नहीं करता। क्योंकि उसे प्रत्येक वस्तु की ओट से वह (सृष्टिकर्ता ईश्वर यानि ब्रह्म) झांकता नजर आता है (हम पाप तभी करते हैं जब समझते हैं कि कोई नहीं देख रहा) ।। ६।।

विशुद्ध ज्ञानी ही सत्य बोल सकता है                          

यदा वै विजानात्यथ सत्यं वदति। नाविजानन् सत्यं

वदति । विजानन्नेव सत्यं वदति। विज्ञानं त्वेव

विजिज्ञासितव्यमिति। विज्ञानं भगवो विजिज्ञास इति ।।१।।

छान्दोग्य उपनिषद्  - सप्तम प्रपाठक – सत्रहवां खंड - श्लोक-1

संधि विच्छेद के बाद –

यदा वै बिजानाति अथ सत्यम् वदति । न अवि  जानन् 

सत्यम् वदति । विजानन् एव सत्यम् वदति । विज्ञानम् तु एव

विजिज्ञासितव्यम् इति । विज्ञानम् भगवः विजिज्ञासे इति ।।१।।

शब्दार्थ –            

यदा वै – जब ही; बिजानाति --- सम्यक्तया जान लेता है; अथ – तो, तब; सत्यम् – सत्य (यथार्थ) बात; वदति --- बोलता है; न -- नहीं; अवि  जानन्  --- न जाननेवाला, बिना जाने; सत्यम् वदति – सत्य कह सकता है; विजानन् एव सत्यम् वदति -- ज्ञाता ही सत्य बोलता है; विज्ञानम् – विशिष्ट (गंभीर)ज्ञान; तु एव – ही तो; विजिज्ञासितव्यम् --- जानना चाहिये; इति ---- ऐसे; विज्ञानम् --- विशिष्ट (सम्यग्) ज्ञान को; भगवः विजिज्ञासे – हे भगवन् ! मैं जानना चाहता हूं; इति -- यह (नारद ने कहा) ।।१।।

शब्दशः अर्थ –

छान्दोग्य उपनिषद में ऋषि सनत कुमार ने कहा कि (कोई) जब ही सम्यक्तया जान लेता है तब (ही) सत्य (यथार्थ) बात बोलता है. नहीं, न जाननेवाला, सत्य कह सकता. ज्ञाता ही सत्य बोलता है. विशिष्ट (गंभीर) ज्ञान ही तो जानना चाहिये. ऐसे. विशिष्ट ज्ञान को हे भगवन् ! मैं जानना चाहता हूं यह (नारद ने कहा) ।।१।।

भावार्थ –

ऋषि ने कहा,‘सत्य’ वही बोलता है जिसे ‘ज्ञान’ होता है, जिसे ‘ज्ञान’ नहीं होता वह ‘सत्य’ नहीं बोलता, इसलिये तुझे ‘सत्य’ के लिये ‘विशिष्ट ज्ञान’ (वह ज्ञान जिससे सत्य और असत्य की पहचान हो सके) को  जानने की इच्छा करनी चाहिये। नारद ने कहा, तो भगवन् , मुझे ‘विज्ञान’ का उपदेश दीजिये ।।१।।

ब्रह्म ज्ञान मनुष्य को निडर बनता है

स वा एष महानज आत्माऽजरोऽमरोऽमृतोऽभयो

ब्रह्मा भयं वै ब्रह्माभयं  हि वै ब्रह्म भवति य एवं वेद ।।२५।।

बृहदारण्यक उपनिषद् - चतुर्थ अध्याय - चौथा ब्राह्मण - श्लोक- 25

संधि विच्छेद के बाद –

सः वै एषः महान् अजः आत्माअजरः अमरः अमृतः अभयः

ब्रह्म अभयम् वै ब्रह्म अभयम् हि वै ब्रह्म भवति यः एवम् वेद ।।२५।।

शब्दार्थ –            

सः वै एषः महान् अजः आत्मा ---- वह ही यह महान् अजन्मा आत्मा; अजरः – जरा (बृद्धता) से रहित; अमरः -- अमर; अमृतः – मृत्यु से परे; अभयः – निर्भय; ब्रह्म—ब्रह्म (का अधिष्ठान) है; अभयम् वै ब्रह्म --- ब्रह्म निर्भय है; अभयम् हि वै ब्रह्म भवति --- वह स्वयं निर्भय ब्रह्म हो जाता है; यः एवम् वेद --- जो इस प्रकार जानता है।।२५।।

शब्दशः अर्थ –

वह ही यह महान् अजन्मा आत्मा (है) (जो) जरा (बृद्धता) से रहित, अमर, मृत्यु से परे निर्भय ब्रह्म है. (क्योंकि स्वयं) ब्रह्म निर्भय है, (अतः) वह (भी) स्वयं निर्भय ब्रह्म हो जाता है जो इस प्रकार (ब्रह्म को) जानता है।।२५।।

भावार्थ –      

यह आत्मा महान् है, अजन्मा है, अजर है, अमर है, अमृत है, अभय है, ब्रह्म है, अभय हो जाना ही तो ब्रह्म-पद पाना है। जो इस रहस्य को जानता है वह अभय हो जाता है, ब्रह्म हो जाता है ।।२५।। 

ब्रह्म ज्ञानी वही है जो सदैव कर्म शील रहता है       

प्राणो ह्येष यः सर्वभूतैविभाति विजानन्विद्वान्भवते नातिवादी।

आत्मक्रीड आत्मरतिः  क्रियावानेष ब्रह्मविदां वरिष्ठः ।।४।।     

मुण्डकोपनिषद् - तृतीय मुण्डक -  प्रथम खण्ड - श्लोक- 4

संधि विच्छेद के बाद –

प्राणः हि एषः यः सर्वभूतैः विभाति विजानन् विद्वान् भवते न अतिवादी

आत्म-क्रीडः आत्म-रतिः क्रियावान् एषः ब्रह्मविदाम् वरिष्ठः ।।४।।

शब्दार्थ –      

प्राणः ---- जीवन-दाता (ब्रह्म); हि --- ही; एषः -- यह है; यः --- जो; सर्वभूतैः --- सब भूतों के द्वारा; विभाति --- प्रकाशित हो रहा है (सब जड़-चेतन उस ही का बखान कर रहे हैं); (यह बात) विजानन् – जानने वाला; विद्वान् – धीर ज्ञानी; भवते --- होता है; न -- नहीं; अतिवादी – बहुत बोलने वाला; आत्म-क्रीडः – अपने आत्मा में ही दिल बहलाव करने वाला (अन्तर्मुख); आत्म-रतिः --- अपने आत्म-स्वरूप में रमने वाला; क्रियावान् – कर्म करने में तत्पर (हो जाता है); एषः -- यह (कर्म - तत्पर) ज्ञानी ही; ब्रह्मविदाम् --- ब्रह्म-ज्ञानियों में; वरिष्ठः --- सर्वोत्कृष्ट है।।४।।

 

शब्दशः अर्थ –

जीवन-दाता (ब्रह्म) ही यह है जो सब भूतों के द्वारा प्रकाशित हो रहा है (सब जड़-चेतन उस ही का बखान कर रहे हैं), (यह बात) जानने वाला धीर ज्ञानी होता है. (वोह) नहीं (होता है) बहुत बोलने वाला (वरन हो जाता है) अपने आत्मा में ही दिल बहलाव करने वाला (अंतर्मुखी), अपने आत्म-स्वरूप में रमने वाला (आत्म-रति), कर्म करने में तत्पर (हमेशा क्रियावान्). यह (कर्म - तत्पर) ज्ञानी ही ब्रह्म ज्ञानियों में सर्वोत्कृष्ट (होते) हैं ।।४।।

भावार्थ –

विद्वान् पुरुष यह जान लेता है कि सृष्टि में जो पंच-महाभूतों की आभा छिटक रही है, यह वास्तव में उस ब्रह्म की उत्पन्न की हुई प्राण-शक्ति ही अठखेलियां कर रही है -- यह सोचकर वह अधिक नहीं बोलता। उसकी क्रीड़ा का क्षेत्र प्रकृति नहीं रहती, आत्मा हो जाता है, -- वह ‘आत्म-क्रीड” हो जाता है; उसकी रति प्रकृति में नहीं, आत्मा में, --- वह ‘आत्म-रति” हो जाता है; आत्म-ज्ञान में लग जाने से वह क्रिया हीन नहीं हो जाता, (वरन) पहले से अधिक क्रियावान् हो जाता है। ब्रह्मवादियों में ऐसा (हमेशा क्रियावान्) व्यक्ति उच्च-कोटि का माना जाता है ।।४।।

जो ब्रह्म को जान जाता है सिर्फ वही ब्रह्मवेत्ता ही ब्राह्मण कहलाता है            

यो वा एतदक्षरं गार्ग्यविदित्वाऽस्मिल्लोके जुहोति यजते

तपस्तप्यते बहूनि वर्षसहस्त्राण्यन्तवदेवास्य तद्भवति यो

वा एतदक्षरं गार्ग्यविदित्वास्माल्लोकात्प्रैति स कृपणोऽथ

य   एतदक्षरं  गार्गी विदित्वास्माल्लोकात्प्रैति  स ब्राह्मणः ।।१०।।

बृहदारण्यक उपनिषद् - तृतीय अध्याय - आठवां ब्राह्मण - श्लोक-१०          

संधि विच्छेद के बाद –

यः  वै एतद् अक्षरम् गार्गी अविदित्वा अस्मिन् लोके जुहोति यजते

तपः तप्यते बहूनि वर्ष सहस्त्राणि अन्तवद् एव अस्य तद् भवति यः

वै एतद् अक्षरम् अविदित्वा गार्गी अस्मात् लोकात् प्रैति सः कृपणः अथ

यः एतद् अक्षरम् गार्गी विदित्वा अस्मात् लोकात् प्रैति सः ब्राह्मणः ।। १०।।

शब्दार्थ –

यः  वै – जो ही; एतद् – अक्षरम् – इस अविनाशी ब्रह्म को; गार्गी -- हे गार्गी !; अविदित्वा – न जानकर; अस्मिन् लोके – इस लोक में (इस जीवन में); जुहोति – हवन (दान- आदान) करता है; यजते --- यज्ञ (देव – पूजा आदि) करता है; तपः तप्यते – तप तपता है; बहूनि ---- बहुत से; वर्ष-सहस्त्राणि – हजारों वर्षो तक; अन्तवद् --- अन्तवाला (विनाशी, या स्वल्प फलवाला), सीमित; एव -- ही; अस्य – इस (होता व यज्ञकर्त्ता) का; तद् ---- वह (यज्ञ-हवन); भवति --- होता है; यः -जो,  वै -ही, एतद् -इस, अक्षरम् -अविनाशी ब्रह्म को, अविदित्वा -- न जानकर (साक्षात् कर), गार्गी -हे गार्गी, अस्मात् -इस, लोकात् ---लोक (जन्म) से, प्रैति – प्रयाण करता (मरता) है; सः ---- वह; कृपणः -- दयनीय है; अथ --- और; यः ---- जो; एतद् -इस, अक्षरम् --अविनाशी ब्रह्म को; गार्गी -- हे गार्गी; विदित्वा --- जानकर; अस्मात् -इस, लोकात् -लोक से, प्रैति – प्रयाण करता (शरीर छोड़ता) है; सः --- वह ही; ब्राह्मणः --- ब्रह्मवेत्ता (मनुष्यों में श्रेष्ठ) है ।। १०।।

शब्दशः अर्थ –

हे गार्गी ! जो ही इस अविनाशी ब्रह्म को न जानकर इस लोक में (सिर्फ) हवन करता है, यज्ञ (देव – पूजा आदि) करता है, तप तपता है बहुत से हजारों वर्षो तक, अन्तवाला ही इस (होता व यज्ञकर्त्ता) का वह (यज्ञ-हवन का फल) होता है. हे गार्गी ! जो ही इस अविनाशी ब्रह्म को न जानकर (बिना साक्षात्कार किये) इस लोक (जन्म) से प्रयाण करता (मरता) है, वह दयनीय है और हे गार्गी ! जो इस अविनाशी ब्रह्म को  जानकर इस लोक से प्रयाण करता (शरीर छोड़ता) है, वह ही ब्राह्मण (ब्रह्मवेत्ता या मनुष्यों में श्रेष्ठ) है ।। १०।।

आध्यात्मिक ज्ञान और भौतिक ज्ञान दोनों ही आवश्यक हैं

विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह।

अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययाऽमृतमश्नुते ।। ११।।

ईशावास्योपनिषद् - श्लोक- 11

संधि विच्छेद के बाद –

विद्याम् च अविद्याम् च यः तद् वेद उभयम् सह

अविद्यया मृत्युम् तीर्त्वा विद्यया अमृतम् अश्नुते ।।११।।

शब्दार्थ –        

विद्याम् – विद्या को; च – और; अविद्याम् – अविद्या को; च -- और; यः --- जो; तद् --- उस, उसको; वेद – जानता है; उभयम् – दोनों को (विद्या और अविद्या को); सह -- साथ; अविद्यया – अविद्या से ; मृत्युम् – मृत्यु को; तीर्त्वा -- तर कर, पार करके; विद्यया – विद्या से; अमृतम् – अमर पद मोक्ष को; अश्नुते – भोगता है, व्याप्त होता है, प्राप्त होता है ।।११।।

शब्दशः अर्थ –

विद्या (अध्यात्म-ज्ञान) को और अविद्या (भौतिक-ज्ञान) को और जो उसको जानता है दोनों को (एक) साथ. (वह) अविद्या (भौतिक-ज्ञान) से मृत्यु को पार करके (और) विद्या से अमर पद मोक्ष को प्राप्त होता है ।।११।।

भावार्थ –

‘विद्या’ तथा ‘अविद्या’– इन दोनों को जो एक साथ जानते हैं, वे ‘अविद्या’ अर्थात् भौतिक-विज्ञान (Science) से ‘मृत्यु’ लाने वाले प्रवाहों को तर जाते हैं, और ‘विद्या’ अर्थात् अध्यात्म-ज्ञान ‘अमृत’ को चखते हैं ।।11।।

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