वैदिक काल में समाज में कोई सामाजिक वर्ग-विभाजन नहीं था.
ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैगुणैः
भागवत गीता अध्याय-१८ मोक्ष सन्यास योग -
मंत्र- 41
अर्थ
- हे परन्तप ! ब्राह्मण, क्षत्रिय, और वैश्यों के
तथा शूद्रों के कर्म, स्वभाव से उत्पन्न गुणों द्वारा विभक्त किये गए हैं.
भागवत गीता में श्री कृष्ण ने स्पष्ट रूप से आदेश दिया है कि समाज
में कार्य का विभाजन (जैसे ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि : ये कार्य श्रेणियां हैं) व्यक्ति
के स्वभावगत गुणों के अनुसार हैं (आज के
किसी उद्यम में कार्यों का विभाजन जैसे- मैनेजर, अधिकारी, सुरक्षा कर्मी, वित्त लिपिक,
श्रमिक और सहायक आदि जैसे नौकरियों का विभाजन उन पदों के लिए आवंटित कार्यों के आधार
पर किया गया है और नौकरी व्यक्तिगत क्षमताओं पर मिलती है जो कि स्वभावगत गुणों पर निर्भर
होते हैं). किसी भी वैदिक ग्रंथों में कहीं भी ऐसा नहीं कहा गया है कि समाज में कार्यों
का विभाजन वंशानुगत है, या जन्म के अनुसार है. वस्तुतः जाति प्रथा एक अवैदिक विचार
है.
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