वैदिक संस्कृति  के मूलभूत सिद्धांत निम्न हैं:-

1.   समानता, स्वतन्त्रता और सार्वभौमिक स्नेह 

2.   पूर्णअहिंसा

3.   सत्य और न्याय

4.   सेवा

5.   त्याग

1.   समानता, कर्म की स्वतन्त्रता और सार्वभौमिक स्नेह

वैदिक संस्कृति  एक वैश्विक भ्रातृत्व समाज की स्थापना के लिए "बिना शर्त समानता के अधिकार” और "अप्रतिबंधित स्वतंत्रता" के साथ “सार्वभौमिक स्नेह” के मूलभूत सिद्धांतों को घोषित करता है. स्वतंत्रता के लिए अनंत विकल्प शामिल है, जिनमे कुछ हैं:-

(i)         कहीं भी रहने की स्वतंत्रता

(ii)       कहीं भी यात्रा की स्वतंत्रता

(iii)      कहीं भी बसने / रहने की स्वतंत्रता

(iv)       कैसे भी ईश्वर की पूजा करने या न करने की स्वतंत्रता

(v)         कुछ भी प्रचार की स्वतंत्रता

(vi)        कुछ भी सिद्धांत प्रतिपादित करने की स्वतंत्रता

(vii)       समृद्धि प्राप्त करने की स्वतंत्रता

(viii)      शांति से जीने की स्वतंत्रता आदि

Ø इस "अप्रतिबंधित स्वतंत्रता" की भी सीमा है, यह स्वतंत्रता वहां समाप्त हो जाती है, जहां से दूसरों के "समान स्वतंत्रता का क्षेत्र" शुरू होता है.


संस्कृत वांग्मय में समानता का सन्देश

समानि प्रपा स वोऽन्नभाग: समाने योक्त्रे सह वो युनज्मि ।

सम्यञ्चोऽग्निं सपर्यतारा नाभिमिवाभित:॥

अथर्ववेद- कांड-3 सूक्त-30 मंत्र- 6


“(हे मनुष्यों !) (तुम लोगों का) जल पीने का स्थान एक (हो), तुम लोगों का अन्न का भाग (भी) साथ साथ (हो), (मैं) तुम लोगों को एक (ही) बंधन में साथ साथ जोड़ता हूँ. जैसे नाभि में चारों ओर चक्र के अरे जड़े होते हैं (उन अरों के समान) मिल जुलकर प्रभु का पूजन व अग्रिहोत्र करो (और सदैव बराबरी और समानता कि भावना के साथ रहो)”.


संस्कृत वांग्मय में निर्भयता और स्वतन्त्रता का सन्देश

यथा भूतं च भव्यं च न बिभीतो न रिष्यतः। एवा मे प्राण मा बिभेः।।

अथर्ववेद- कांड-2 सूक्त-15 मंत्र- 6


“और जिस प्रकार भूत काल और भविष्यत काल (दोनों ही) भयभीत नहीं होते (और) न ही नष्ट होते हैं, उसी प्रकार, (हे) मेरे प्राण (तू भी) भयभीत मत हो (और मृत्यु भय से मुक्त होकर स्वतंत्र  रहो)”.


संस्कृत वांग्मय में सार्वभौमिक स्नेह का सन्देश

दृते दृंह मा मत्रिस्य मा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम् ।

मत्रिस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे। मत्रिस्य चक्षुषा समीक्षामहे ।।

यजुर्वेद- अध्याय-36 मंत्र-18


“हे अविद्या रूपी अन्धकार के निवारक जगदीश्वर, (इस श्रेष्ठ मानवीय विचार पर) मुझको दृढ़ कीजिये (कि) सभी प्राणी मित्र की दृष्टि से मुझको एक समान देखें, मैं मित्र की दृष्टि से सब प्राणयिों को एक समान देखूं, (इस प्रकार सब हम लोग परस्पर) मित्र की दृष्टि से (एक दूसरे को) एक समान देखें (अतः सबको एक समान देखना ही हमारा मूलभूत कर्तव्य है)”.


संस्कृत वांग्मय में वैश्विक भ्रातृत्व  का सन्देश

ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः । सर्वे सन्तु निरामयाः।

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु । मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत भवेत् ।

ॐ शांतिः शांतिःशांतिः ।।

बृहदारण्यक उपनिषद् 


“सब सुखी हों. सब स्वस्थ हों. सब शुभ को पहचान सकें. कोई प्राणी दुःखी न हो. (चारों ओर) शांति की स्थापना हो (सबके शुभ होने के लिए प्रार्थना करना ही वैश्विक भ्रातृत्व  का परिचायक है)”.


उपरोक्त उद्धरणों से पता चलता है कि समानता, स्वतन्त्रता, सार्वभौमिक स्नेह और वैश्विक भ्रातृत्व  हमारी वैदिक संस्कृति के मूलभूत सिद्धांत है.


2.  पूर्ण अहिंसा

वैदिक संस्कृति  अहिंसा के सच्चे और पूर्ण स्वरुप का पालन करता है. पूर्ण अहिंसा को पालन करने के लिए निम्नलिखित तीनो बातों का पालन करना आवश्यक है:-

(i)      स्वयं के द्वारा किसी और पर किया गया हिंसा सहन नहीं करना

(ii)     किसी और के द्वारा स्वयं पर की गयी हिंसा सहन नहीं करना

(i)       किसी के भी द्वारा, किसी अन्य व्यक्ति के ऊपर की गयी हिंसा भी सहन नहीं करना


तीसरा कार्य पूर्ण अहिंसा का सबसे महत्वपूर्ण भाग है.

शांति स्थापना अहिंसा का मूल उद्देश्य है और वेद (अहिंसा के द्वारा) शांति स्थापना की शिक्षा देते हैं.


संस्कृत वांग्मय में पूर्ण अहिंसा का सन्देश :  उद्धरण-1

यत् स्यादहिम्सासम्युक्तं स धर्म इति निश्चयः।
अहिम्सार्थाय भूतानां धर्मप्रवचनं कृतम् ।।

महाभारत, कर्ण पर्व


“जो भी (कर्म या विचार आदि) अहिंसा (से) जुड़ा हुआ स्थित है, वह निश्चय पूर्वक (ही) कर्तव्य है, (मैं) अहिंसा के लिये प्राणियों के कर्तव्य का व्याख्यान करता हूँ (और अहिंसा के मार्ग पर चलना ही मनुष्यों का कर्त्तव्य घोषित करता हूँ)”.


संस्कृत वांग्मय में पूर्ण अहिंसा का सन्देश :  उद्धरण-2

ज्येष्ठ्यं च मऽआधिपत्यं च में मन्युश्च में भामश्च मेंमश्च मेम्भश्च मे जेमा च मे महिमा ।

च मे वरिमा च मे प्रथिमा च मे वर्षिमा च मे द्राघिमा च मे वृद्धं च मे वृद्धिश्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ।।

यजुर्वेद- अध्याय-18 मंत्र-4


“और मेरी श्रेष्ठता और मेरे  स्वामित्व, और मेरे  उत्साह, और मेरी दुष्टता के प्रति असहनशीलता और मेरी  गंभीरता और मेरी जीवनी शक्ति और मेरी विजयशीलता और मेरी महत्त्व और मेरी प्रशंसा और मेरे  विस्तार और मेरे  दीर्घ जीवन और मेरे बड़प्पन और मेरी बढ़ी हुयी प्रभुता और मेरी बढ़ोतरी यज्ञ से समर्थित होवे (और मैं दुष्टता या हिंसा को कभी स्वीकार न करूँ)”.


संस्कृत वांग्मय में पूर्ण अहिंसा का सन्देश :  उद्धरण-3

द्यौः शन्तिरन्तरिक्षं  शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः।

वनस्पतयः शान्तिर्विश्वेदेवा शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्वं शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि ।।

यजुर्वेद- अध्याय-36 मंत्र- 17


“प्रकाश युक्त द्युलोक शांतिकारक (होवे), दोनों लोक के बीच का आकाश शांतिकारी (होवे), पृथिवी लोक शांतिकारक  (होवे), जल शांतिकारक  (होवे), सभी औषधियां शांतिकारक  (होवे), सभी वनस्पतियां शांतिकारक  (होवे),  सब प्रकृति के ये देव शांतिकारक  (होवे), परमेश्वर शांतिकारक  (होवे), सम्पूर्ण पदार्थ शांतिकारक  (होवे), शान्ति भी शांतिकारक  (होवे), वह शान्ति ही मुझको प्राप्त होवे (और शांति स्थापना सिर्फ पूर्ण अहिंसा के पालन से ही हो सकती है)”.


उपरोक्त उद्धरणों से पता चलता है कि पूर्ण अहिंसा हमारी वैदिक संस्कृति का एक मूलभूत सिद्धांत है.


3.  सत्य और न्याय

वैदिक संस्कृति  सत्य और न्याय के पूर्ण स्वरुप को मानवता और पूरे ब्रह्मांडके लिए घोषित करता है, जिसमे निम्न बातें सम्मिलित हैं -

(i)       अपराध की स्वीकारोक्ति, निंदा और क्षमा याचना

(ii)       न्यायिक प्रणाली से सहयोग

(iii)      दंड का अनुपालन

(iv)       पीड़ित को क्षतिपूर्ति

(v)          नियंत्रण


नियंत्रण के लिए, उस मूल कारण का पता लगाना (जिसके कारण अपराध हुआ) और वैसे अपराधों को भविष्य में रोकने के लिए, उपर्युक्त तरीका ढूढना अत्यावश्यक है, जिसमे सार्वजनिक शिक्षा, प्रशिक्षण, नियमित अभ्यास, जागरूकता अभियान आदि शामिल होना चाहिए.


संस्कृत वांग्मय में सत्य और न्याय का सन्देश :  उद्धरण-1

ऋतेन यावृतावृधावृतस्य ज्योतिषस्पती । ता मित्रावरुणा हुवे ।। 

ऋग्वेद- मण्डल -1 सूक्त-23 मंत्र- 5


“जो सत्य के अनुशासन में रहने पर सत्य और अनुशासन को बढ़ाते हैं, (मैं) उन सत्य के, ज्ञान के रक्षक मित्र और वरुण (रूप में ईश्वर) को पुकारता हूँ (प्रार्थना करता हूँ कि मैं सदा सत्य मार्ग पर ही रहूँ)”.


संस्कृत वांग्मय में सत्य और न्याय का सन्देश :  उद्धरण-2

दृष्ट्वा रूपे व्याकरोत् सत्यानृते प्रजापतिः अश्रद्धामनृतेदधाच्छ्रुद्धांसत्ये प्रजापतिः।

ऋतेन सत्यमिन्द्रियं विपानंशुक्र्मन्धसऽ इन्द्रस्येन्द्रियमिदं पयोमृतं मधु ।।

यजुर्वेद- अध्याय-19 मंत्र-77


सृष्टिकर्ता परमेश्वर  सत्य असत्य निरूपण किये हुए ज्ञान दृष्टि से भली प्रकार विचार करके पृथक-पृथक करता है, सृष्टिकर्ता परमेश्वर  असत्य में अप्रीति स्थापित करता, सत्य में प्रीति . अंधकार हटाने वाले शुद्धि करने वाले, प्रजा का विशेष पालक, यथार्थ सत्य से, सत्य स्वरूप चित्त को परम ऐश्वर्य युक्त धर्म के संस्थापक के चित्त को इस पुष्टि कारक दूध के समान मृत्यु रोग निवारक (सृष्टिकर्ता परमेश्वर) मानने (उपासना करने) योग्य है (अतः ईश्वर का आदेश है कि सिर्फ सत्य को ही स्वीकार किया जाये).


संस्कृत वांग्मय में सत्य और न्याय का सन्देश :  उद्धरण-3

असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय।

मृत्योर्मा अमृतं गमय, ॐ शान्ति शान्ति शान्तिः॥

बृहदारण्यक उपनिषद


“असत्य (से) मुझे सत्य (की ओर) चला जाऊँ, अंधकार (से) मुझे प्रकाश (की ओर) चला जाऊँ. मृत्यु से मुझे अमरत्व (मृत्यु भय से मुक्ति) (की ओर) चला जाऊँ, शान्ति शान्ति शान्ति (सत्य पालन से सब ओर शांति ही शांति व्याप्त हो)”.


उपरोक्त उद्धरणों से पता चलता है कि सत्य और न्याय हमारी वैदिक संस्कृति के मूलभूत सिद्धांत हैं.


अपने द्वारा अपराध होने का भान होते ही, पीड़ित व्यक्ति से, बिना विलम्ब किये हुए, अंतःकरण से, विनय पूर्वक क्षमा याचना करने से, अपराध का लांछन बिलकुल समाप्त हो जाता है. हालाँकि अपराध का कर्मफल बिलकुल समाप्त नहीं किया जा सकता है, हाँ, कर्मफल के पीड़ा की गुरुता काफी कम की जा सकती है.

सृष्टिकर्ता परमेश्वर ने यह सृष्टि कर्ममय बनाया है. जो मनुष्य जैसा कर्म करता है उसी कर्म के अनुसार ही वैसा फल उसको मिलता है.

शुभ  कर्म का शुभ  फल व  अशुभ  कर्म का  अशुभ  फल होता है. शुभ कर्म का फल चाहे तो मनुष्य भोगने से मना कर सकता है लेकिन अशुभ कर्म के फल से वह बच नहीं सकता है, अशुभ कर्म का फल उसे भोगना ही पड़ता है.

अशुभ कर्म का फल पूर्णतः समाप्त तो नहीं किया जा सकता है, परन्तु, अशुभ कर्म के अशुभ फल की तीव्रता को कम किया जा सकता है और उसका एक ही उपाय है उस अशुभ कर्म पर न्याय को पूरी तरह स्वीकार करके अनुपालन करना.

जब किसी अशुभ कर्म के पश्चात् बिना विलम्ब के अपराधी अपराध की स्वीकारोक्ति करता है, अपराध की निंदा और क्षमा याचना करता है, न्यायिक प्रणाली से सहयोग करता है, दंड का अनुपालन करता है, पीड़ित को क्षतिपूर्ति करता है, भविष्य में वैसे अशुभ कर्म किसी के भी द्वारा न हों उसके लिए नियंत्रण के तरीकों का पता लगाने व उन तरीकों को स्थापित करने में सहयोग करता है और ऐसा करने से जब पीड़ित व्यक्ति उसको ह्रदय से क्षमा कर देता है, तब उसके द्वारा किये गए अशुभ कर्मों के फल की तीव्रता कम हो जाती है, सृष्टि के नियमानुसार मिलने वाले दंड की गुरुता काफी कम हो जाती है.

लेकिन कितने भी कम अंश में ही सही, अशुभ कर्म का फल कभी शून्य नहीं हो सकता है और कितने भी थोड़े मात्रा में ही सही, अशुभ कर्मों का अशुभ फल भोगना ही पड़ता है.

 

4.  सेवा

वैदिक संस्कृति "मानवता की सेवा" को अभिन्न मानवीय व्यवहार घोषित करता है, जो स्वयं आगे बढ़ कर किया जाना चाहिए. यह पूर्णतः प्रासंगिक है सबके लिए, जैसे:-

जो ईश्वर में विश्वास नहीं करते हैं, उनके लिए सत्य और तर्क की खोज ही किसी प्राणी का बुनियादी क्रियाकलाप होता है और "सेवा (स्वयं के लिए भी) जीवन का एकमात्र उद्देश्य होता है".

जो ईश्वर में विश्वास करते हैं, उनके लिए सत्य और तर्क की खोज के द्वारा मोक्ष प्राप्त करना ही जीवन का उद्देश्य होता है और "सेवा (स्वयं के लिए भी) मोक्ष प्राप्त करने (मोक्ष यानी सर्वशक्तिमान/सर्वव्यापी सर्वोच्च सृष्टिकर्ता ईश्वर से संयुक्त होना) का एकमात्र मार्ग होता है".


संस्कृत वांग्मय में सेवा का सन्देश :  उद्धरण-1

न त्वहं कामये राज्यं, न स्वर्गं न पुर्नभवम् ।

कामये दु:ख तप्तानां प्राणिनाम् आर्तिनाशनं ।।

महाभारत-द्रोण पर्व


“(हे ईश्वर !) न तो मैं राज्य (की) कामना करता हूँ, न स्वर्ग (की), न (ही) पुनर्जन्म चक्र से मुक्ति (की). (मैं तो सिर्फ) दुःख से त्रस्त प्राणियों के कष्ट नाश (की) कामना करता हूँ (और उन दुखी प्राणियों की सेवा के द्वारा उनके दुःख को समाप्त करना चाहता हूँ)”.


संस्कृत वांग्मय में सेवा का सन्देश :  उद्धरण-2

सदयं हृदयं यस्य भाषितं सत्यभूषितम् ।

कायं परहितं यस्य कलिस्तस्य करोति किम् ॥

संस्कृत शुभाषित


“हृदय जिसका दया से भरा (है) (और) (जिसकी) वाणी सत्य (से) अलंकृत (है). जिसका शरीर परोपकार (में अनवरत लग हुआ है), कलियुग उसका क्या (अहित) कर सकता है? (अर्थात दूसरों का परोपकार करने वाले को दुर्भाग्य छू भी नहीं सकती, कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती है)”.


संस्कृत वांग्मय में सेवा का सन्देश :  उद्धरण-3

यस्य चित्तं द्रवीभूतं कृपया सर्वजन्तुषु ।

तस्य ज्ञानेन मोक्षेण किं जटाभस्मलेपनैः।।

चाणक्य नीति


“जिसका मन दया से सभी प्राणियों के लिए द्रवित हो जाता (है). उसके ज्ञान के लिए, मोक्ष के लिए जटा (या) भस्म लगाना (की) क्या (जरुरत है) (अर्थात दूसरों की सेवा में रत दयालु व्यक्ति तो महा ज्ञानी होता है और उसको ईश्वर की प्राप्ति के लिए अलग से कुछ करने या बाह्य आडम्बर दिखाने की कोई जरूरत नहीं है, बस ह्रदय में दया भाव रखना और दूसरों की सेवा करना ही काफी है)”.


उपरोक्त उद्धरणों से पता चलता है कि सेवा हमारी वैदिक संस्कृति का एक मूलभूत सिद्धांत है.


5.   त्याग

वैदिक संस्कृति , मानवता और पूरे ब्रह्मांड के संसाधनों के फलने फूलने तथा पुनरुपयोग के लिए त्याग को अनुकरणीय स्वैछिक मानव व्यवहार घोषित करता है. यह पूर्णतः प्रासंगिक है सबके लिए, जैसे:- जो ईश्वर में विश्वास नहीं करते हैं, उनके लिए "हर एक का जीवन शून्य से शुरू होता है (जन्म से पहले किसी का कोई भौतिक अस्तित्व नही होता), और शून्य में समाप्त हो जाता है (मृत्यु के बाद किसी का कोई भौतिक अस्तित्व नही रहता), जो कुछ भी जीवन में कोई एकत्रित करता है वह यहीं रहने वाला है, अतः वह सब बुद्धि पूर्वक यहीं वितरित कर देना उचित है.

जो ईश्वर में विश्वास करते हैं, उनके लिए त्याग ईश्वर की पूजा करने का उच्चतम मार्ग है और मोक्ष प्राप्त करने का श्रेष्ठ मार्ग है.

वेदों में ऋषि दधीचि के रूप में सर्वोच्च त्याग की शिक्षा दी गयी है और यह बताया गया है कि ऋषि दधीचि ने समाज के शुभ के लिए बिना किसी द्विधा के अपने शरीर को तत्परता से त्याग दिया था. 


संस्कृत वांग्मय में त्याग का सन्देश :  उद्धरण-1 

ईशा वास्यमिदं  सर्वं यात्किं च जगत्यां जगत् ।

तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विदवनम् ।।

यजुर्वेद- अध्याय-40 मंत्र- 1


“हे मनुष्य ! (तू) प्राप्त होने योग्य विश्व में जो कुछ भी संसार की सृष्टि (है) यह सब संपूर्ण ऐश्वर्य से युक्त सर्वशक्तिमान परमात्मा से सब ओर से आच्छादन करने योग्य (है). उस के द्वारा, त्याग किये हुए (जगत के) पदार्थों का उपभोग कर, किसी के भी वस्तु मात्र की  मत लोभ कर (और सृष्टि से प्राप्त हर चीज का तू सृष्टि को ही त्याग पूर्वक वापिस दे दे)”.


संस्कृत वांग्मय में त्याग का सन्देश :  उद्धरण-2 

इन्द्रवायू उबाविह सुहवेह हवामहे ।

यथा नः सर्व इज्जनः संगत्यां सुमना असद् दानकामश्च नो भुवत् ।।

अथर्ववेद- कांड-3 सूक्त-20 मंत्र-6


“(हे) इन्द्र एवं वायु देव ! आप दोनों इस लोक में उत्तम रीति से (अपनी शक्ति से) दूसरे के जीवन और प्राणों का दान करते हो, (अतः हम आप दोनों के) इस (कार्य में) गुणों का गान करते हैं. जिससे हम सभी यह लोग समान चलने में (परस्पर मेलजोल में) सुन्दर चित्त (प्रीति) वाले हों और हम (सब लोग) दान देने की इच्छा वाले हों (और दान व त्याग हमारे जीवन का लक्ष्य हो)”.


संस्कृत वांग्मय में त्याग का सन्देश :  उद्धरण-3 

दातव्यमिति यद्दानं दीयते अनुपकारिणे ।  

देशे काले च पात्रे च तद्दानम् सत्विकं स्मृतम् ।।  

भागवत गीता - श्रद्धात्रयविभाग योग -श्लोक-20


दान देना ही (कर्तव्य है), और जो दान देश में, काल में, समय में और पात्र में (ऐसे लोगों को भी जो कभी भी) उपकार न करने वाले (हों) को दिया जाता है (तब) वह दान सात्विक, शुद्धचित्त (दान के रूप में) याद रखा जाता है (और ऐसे महान दान को त्याग के श्रेष्ठ मानक के रूप में माना जाता है).

उपरोक्त उद्धरणों से पता चलता है कि त्याग हमारी वैदिक संस्कृति का एक मूलभूत सिद्धांत है.

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