हिन्दू धर्म का वैदिक आधार

ज्यादातर हिन्दू धर्मानुयायियों को यह मालूम ही नहीं होगा कि हिन्दू धर्म भी एक और सिर्फ एक ही सृष्टिकर्ता ईश्वर की शिक्षा देता है। विदेशी धर्मानुयायियों की तो बात ही छोड़ दें, क्योंकि उनका तो जन्म ही अरब अथवा इजराइल इत्यादि जगहों में हुआ था अतः उनको भारत वर्ष की संस्कृति या भारतीय धार्मिक परमपराओं के ज्ञान न होना स्वाभाविक ही है ।

इस तरह से अगर देखें तो अरब, इजराइल, ईरान अथवा भारत वर्ष में उत्पन्न हुए सभी धर्मों में एक और सिर्फ एक ही सृष्टिकर्ता ईश्वर की शिक्षा दी गयी है । अतः मूल सैद्धांतिक आधार कि बात करें तो अरब, इजराइल, ईरान अथवा भारत वर्ष में उत्पन्न हुए सभी धर्मों का आधारभूत तत्व एक ही है।

नीचे दिए कुछ वैदिक मन्त्रों को देखें, उनमें एक और सिर्फ एक ही सृष्टिकर्ता ईश्वर की शिक्षा दी गयी है।

कीर्तिश्च यशश्चाम्भश्च नभश्च ब्राह्मणवर्चसं चान्नं चान्नाद्यं च ।

य एतं देवमेकवृतं वेद ।। 

अथर्ववेद- कांड-13 सूक्त-5-श्लोक-1,2

भावार्थ      –

जो इस प्रकाशमय प्रभु को एक रूप में वर्तमान जानता है, (वह) वेद ज्ञान और तपस्वी जीवन भी, प्रसिद्धि और सफलता भी, ज्ञानजल और प्रबन्ध सामर्थ्य और ब्रह्म तेज भी, अन्न और अन्न भक्षण सामर्थ्य भी, (यशस्वी) भूत और (यशस्वी) भविष्य भी, (कर्मों में) श्रद्धा और (कर्मों में) प्रीति भी, (और परिणामतः) सुखमय स्थिति और आत्मधारण शक्ति भी (प्राप्त करता है) ।

यहां वेदों में न केवल एक ईश्वर का प्रतिपादन किया गया है, वरन, यह भी कहा गया है कि जो इन सृष्टिकर्ता देव को एक और सिर्फ एकमात्र ही समझता है, उसे ही कीर्ति, यश, जल, आकाश, ब्रह्मवर्चस (परमात्म तेज) अन्न और उपभोग्य सामग्री प्राप्त होती है।   

संधि विच्छेद के बाद –

कीर्तिश्च यशश्चाम्भश्च नभश्च ब्राह्मणवर्चसं चान्नं चान्नाद्यं च ।

य एतं देवमेकवृतं वेद ।।  

शब्दार्थ –

ये - जो, एतं -इस, देवम् -प्रकाशमय प्रभु को, एकवृतं -एकत्वेन वर्तमान, एक रूप में वर्तमान,  वेद -जानता है,  (वह) ब्रह्म -वेद ज्ञान, च -और, तपः -तपस्वी जीवन, च -भी, और, कीर्ति -प्रसिद्धि, च -और, यशः –सफलता, यश, च -भी, अम्भः -ज्ञानजल, च -और, नभः -प्रबन्ध सामर्थ्य, च -और, ब्रह्मवर्चसं -ब्रह्म तेज, च -भी, अन्नं -अन्न, च -और, अन्नाद्यं -अन्न भक्षण सामर्थ्य , च -भी, भूतं -भूत, च -और, भव्यं -भविष्य, च -भी, श्रद्धा - श्रद्धा, च -और, रुचिः - प्रीति, च -भी, स्वर्गः -सुखमय स्थिति, च -और, स्वधा -आत्मधारण शक्ति, च –भी ।

शब्दशः अर्थ –

जो इस प्रकाशमय प्रभु को एक रूप में वर्तमान जानता है, वेद ज्ञान और तपस्वी जीवन भी, प्रसिद्धि और सफलता भी, ज्ञानजल और प्रबन्ध सामर्थ्य और ब्रह्म तेज भी, अन्न और अन्न भक्षण सामर्थ्य भी, भूत और भविष्य भी, श्रद्धा और प्रीति भी, सुखमय स्थिति और आत्मधारण शक्ति भी  ।

समझने में सुविधा हो इस लिए मन्त्रों का संधि विच्छेद कर के सरल किया गया है, फिर एक एक शब्दों का हिंदी में अर्थ दिया गया है। अगर उन शब्दार्थों को मिला दिया जाये, तो, जो शब्दशः अर्थ बनता है वह दिया गया है और अंत में भावार्थ भी दिया गया है। ऐसा विस्तृत और विशद विश्लेषण इस लिए किया गया है जिससे कोई भी व्यक्ति अगर चाहे तो खुद भी उन मन्त्रों का अर्थ एवं व्याख्या खुद भी कर सके। इससे पाठक को यह विश्वास हो जाये कि यहां वैदिक मन्त्रों का सत्यपरक पाठ दिया गया है और लेखक ने अपनी ओर से कुछ भी नहीं जोड़ा है।

यहां यह बताना अत्यंत महत्वपूर्ण होगा कि वैदिक मन्त्रों का अर्थ निकालना तथा उनकी व्याख्या करना आसान नहीं है क्योंकि वैदिक संस्कृत सबसे प्राचीनतम संस्कृत शैली है और उनमें प्रयुक्त काफी शब्दों का प्रयोग मूलतः जिस अर्थ में किया गया होगा, उन शब्दों के आज प्रचलित अर्थों में काफी बदलाव आ गया है, जैसा भाषा में बदलाव २५०० या ३००० वर्षों के लम्बे काल खंड में आना स्वाभाविक भी है। ऊपर से संस्कृत भाषा का साधारण बोलचाल में प्रयोग भी लगभग २००० साल से नहीं हो रहा है।

इसी लिए वैदिक मन्त्रों के अर्थ को समझने के लिए विशेष शब्दकोष "निघण्टु" बनाया गया था। दूसरी मुख्य बात और भी है कि वैदिक मन्त्रों के अर्थ सीधे सीधे नहीं किये जा सकते हैं, इसके लिए उन वेदों से सम्बंधित अन्य ग्रंथों को पढ़ना अत्यंत आवश्यक है जैसे कि उपनिषद् वे ब्राह्मण ग्रन्थ आदि।

एक और वेद मन्त्र देखें -

न द्वितीयो न तृतीयश्चतुर्थो नाप्युच्यते । य एतं देवमेकवृतं वेद ।।  

न पञ्चमो न षष्ठः सप्तमो नाप्युच्यते । य एतं देवमेकवृतं वेद ।।  

नाष्टमो न नवमो दशमो नाप्युच्यते । य एतं देवमेकवृतं वेद ।।  

अथर्ववेद- कांड-13 सूक्त-5-श्लोक-3,4,5

भावार्थ      –

जो इस प्रकाशमय प्रभु को एक रूप में वर्तमान जानता है, (व जानता है कि वह प्रभु) न दूसरा न तीसरा (और) न चौथा ही कहा जाता है। न पाँचवाँ न छठा न सातवाँ ही कहा जाता है । न आठवाँ न नौवा (और) न दसवाँ ही कहा जाता है (क्योंकि वो प्रभु एक हैं और एक ही हैं) ।

यहां तो वेदों ने संख्या का नाम ले ले कर यह जोर देकर कहा कि इन सृष्टिकर्ता देव  एक और सिर्फ एकमात्र ही  हैं।

संधि विच्छेद के बाद –

न द्वितीयः न तृतीयः चतुर्थः न अपि उच्यते । य एतं देवम् एकवृतं वेद ।।  

न पञ्चमः न षष्ठः सप्तमः न अपि उच्यते । य एतं देवम् एकवृतं वेद ।।  

न अष्टमः न नवमः दशमः न अपि उच्यते । य एतं देवम् एकवृतं वेद ।।  

शब्दार्थ –

ये - जो, एतं -इस, देवम् -प्रकाशमय प्रभु को, एकवृतं -एकत्वेन वर्तमान, एक रूप में वर्तमान,  वेद -जानता है । न -न, द्वितीयः -दूसरा, न -न, तृतीयः -तीसरा, न -न, चतुर्थः -चौथा, अपि - ही, उच्यते -कहा जाता है । ये - जो, एतं -इस, देवम् -प्रकाशमय प्रभु को, एकवृतं -एकत्वेन वर्तमान, एक रूप में वर्तमान,  वेद -जानता है । न -न, पञ्चमः -पाँचवाँ, न -न, षष्ठः -छठा, न -न, सप्तमः -सातवाँ, अपि - ही, उच्यते -कहा जाता है । ये - जो, एतं -इस, देवम् -प्रकाशमय प्रभु को, एकवृतं -एकत्वेन वर्तमान, एक रूप में वर्तमान,  वेद -जानता है । न -न, अष्टमः -आठवाँ, न -न, नवमः -नौवा,  न -न,  दशमः -दसवाँ, अपि -ही, उच्यते -कहा जाता है  ।

शब्दशः अर्थ –

जो इस प्रकाशमय प्रभु को एक रूप में वर्तमान जानता है, न दूसरा न तीसरा न चौथा ही कहा जाता है । जो इस प्रकाशमय प्रभु को एक रूप में वर्तमान जानता है, न पाँचवाँ न छठा न सातवाँ ही कहा जाता है । जो इस प्रकाशमय प्रभु को एक रूप में वर्तमान जानता है, न आठवाँ न नौवा  न दसवाँ ही कहा जाता है ।

अब प्रश्न उठता है कि अगर वेदों में एक और सिर्फ एक ही सृष्टिकर्ता परमेश्वर के बारे में बताया गया है तो फिर हिन्दू धर्म के बाद में रचना किये गए अनेक ग्रंथों में अनेक देवताओं के पूजन के बारे में क्यों बताया गया है ? क्या वैदिक काल के पश्चात् हिन्दू धर्म वेदों से विमुख हो गया, वेदों के रास्ते से दूर चली गया ?

इस बात को समझने के लिए आगे दिए गए वेद मन्त्रों को देखिये-

हिरण्यगर्भः समवर्त्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेकऽ आसीत् ।

स दाधार पृथिवीं  द्यामुतेमाम्  कस्मै देवाय हविषा विधेम ।।

यजुर्वेद- अध्याय-23 मंत्र-1

भावार्थ  –

संपूर्ण जीव-जगत के उत्पत्ति के पहले भी विद्यमान, हिरण्यगर्भ परमपुरुष (सूर्य, चन्द्र, तारे आदि ज्योति गर्भ रूप जिसके भीतर हैं) जो सर्वत्र व्याप्त हैं, संपूर्ण ब्रह्माण्ड के एकमात्र (उत्पादक और) पालक हैं, वे ही पृथ्वी और स्वर्ग-अंतरिक्ष को धारण करते है, उन्हीं आनंदस्वरूप ईश्वर के लिये  सर्वस्व अर्पण करके (हम) सेवा उपासना करें ।

यहां यह बताया जा रहा है कि न केवल सृष्टिकर्ता ईश्वर एक और सिर्फ एकमात्र ही हैं, वरन यह भी बताया जा रहा कि वे सृष्टि कि रचना के पहले भी वर्तमान थे तथा सूर्य, चन्द्र, तारे आदि सृष्टि के रूप भी उनमें समाहित थे और इस सृष्टि कि हर चीज कि रचना उनसे ही हुयी है।

इस मन्त्र से पता चलता है कि वेदों में जिन एक मात्र सृष्टिकर्ता परमेश्वर के बारे में बताया गया है, न केवल वे आदि शक्ति हैं, वरन, उनसे ही सृष्टि के सारे तत्वों कि रचना हुयी है।

संधि विच्छेद के बाद -

हिरण्यगर्भः सम् अवर्त्तत अग्रे भूतस्य जातः पतिः एकः आसीत् ।

सः  दाधार पृथिवीं  द्याम् उत इमाम् कस्मै देवाय हविषा विधेम ।।

शब्दार्थ -

भूतस्य - जीव-जगत् के,  अग्रे - पहिले, हिरण्यगर्भः -सूर्य, चन्द्र, तारे आदि ज्योति गर्भ रूप जिसके भीतर है, सम् - सर्वत्र व्याप्त होकर, अवर्त्तत - अवस्थित है,  एकः -एक ही, जातः -जाने जाते, पतिः -पालन कर्ता, आसीत् - होते है,  सः -वह, इमाम् -इस, पृथिवीं - पृथ्वी, उत - और, द्याम् -प्रकाशमय द्युलोक, दाधार - धारण करते है, कस्मै - आनंदस्वरूप, देवाय -ईश्वर के लिये, हविषा - सर्वस्व अर्पण करके, विधेम - सेवा उपासना करें ।

शब्दशः अर्थ –

जीव-जगत् के पहिले, सूर्य, चन्द्र, तारे आदि ज्योति गर्भ रूप जिसके भीतर है, सर्वत्र व्याप्त होकर अवस्थित है, एक ही जाने जाते पालन कर्ता होते है,  वह इस पृथ्वी और प्रकाशमय द्युलोक धारण करते है, आनंदस्वरूप ईश्वर के लिये सर्वस्व अर्पण करके सेवा उपासना करें ।

एक और वेद मन्त्र देखिये।

तमिदं निगतं सह  स एष एक एकवृदेक एव । य एतं देवमेकवृतं वेद ॥

सर्वे अस्मिन् देवा एकवृतो भवन्ति । य एतं देवमेकवृत्तं वेद ॥

अथर्ववेद- कांड-13 सूक्त-5 मंत्र- 7,8

भावार्थ      –

उन (सृष्टिकर्ता परमेश्वर) को यह (परम) शक्ति निश्चय से प्राप्त है । ऐसे वो (सृष्टिकर्ता परमेश्वर) एक (और केवल एक) ही हैं (अनेकों नहीं)। सभी (सूर्य, अग्नि, इन्द्र आदि) देव इन्ही (एकमात्र सृष्टिकर्ता) परमेश्वर में एक आधार में वर्तमान होते हैं (या सभी सूर्य, अग्नि, इन्द्र आदि देव इन्ही एकमात्र सृष्टिकर्ता परमेश्वर के ही रूप हैं) । 

जो भी इन (सृष्टिकर्ता) परमेश्वर को एक (और केवल एक ही) जानता है (केवल वह ही सृष्टिकर्ता परमेश्वर को जान पाता है) ।  

यहां यह भी कहा जा रहा है कि न केवल सृष्टिकर्ता परमेश्वर एक और केवल एक ही हैं वरन यह भी बताया जा रहा है कि हम ईश्वर के जिन अनेकों रूपों कि आराधना करते हैं वे सभी देव भी इन्हीं एक  सृष्टिकर्ता परमेश्वर में, इन्हीं एक  सृष्टिकर्ता परमेश्वर के ही एक आधार में वर्तमान होते हैं

संधि विच्छेद के बाद –

तम्  इदं निगतम् सः एषः एकः एकवृतः एकः एव । यः एतं देवम् एकवृतं वेद ॥

सर्वे अस्मिन् देवाः एकवृतः भवन्ति । यः एतं देवम् एकवृतं वेद ॥

शब्दार्थ –

तम्  -उस को, उन को, इदं सः -यह शत्रुमर्षक बल, निगतम् -निश्चय से प्राप्त है । सः -वे, एषः -ये, एकः -एक हैं, एकवृत् -एकत्वेन एकाकार रूप में वर्तमान हैं, एकः -एक, एव -ही हैं, । यः - जो भी, एतं देवम् - इस प्रकाशमय प्रभु को, एकवृतं - एकत्वेन एकाकार रूप में वर्तमान, वेद -जानता है ।  सर्वे –सब, देवाः -देव, अस्मिन् -इस में, एकवृतः -एक आधार में, भवन्ति -वर्तमान होते हैं । यः -जो भी, एतं देवम् -इस प्रकाशमय प्रभु को, एकवृतं - एकत्वेन एकाकार रूप में वर्तमान, वेद -जानता है ।

शब्दशः अर्थ –

उन को यह शत्रुमर्षक बल निश्चय से प्राप्त है । वे ये एक हैं, एकत्वेन एकाकार रूप में वर्तमान हैं, एक ही हैं । जो भी इस को  एकत्वेन एकाकार रूप में वर्तमान जानता है । सब देव इस में एक आधार में वर्तमान होते हैं । जो भी इस को एकत्वेन एकाकार रूप में वर्तमान जानता है ।

एक और वेद मन्त्र देखिये।

इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाअहुरथो दिव्य: स सुपर्णो गरुत्मान् ।

एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहु: ॥

ऋग्वेद- मण्डल -1 सूक्त-164 मंत्र- 46

भावार्थ  –

 (सृष्टिकर्ता या ब्रह्म को) सर्वैश्वर्यशाली, सबके प्रति स्नेहमय, श्रेष्ठ, अग्रणी कहते हैं और वह प्रकाशमय पालन आदि महान कर्म करने वाली (शक्ति) , (इस) ब्रह्माण्ड का महान भार उठाने वाली (उस) एक सत्यरूप परमेश्वर (सृष्टिकर्ता या ब्रह्म) को ज्ञानी जन भिन्न- भिन्न (नामों) से (जब जब वो उस रूप मे प्रकट होते हैं) कहते हैं (और उस सृष्टिकर्ता या ब्रह्म को ही) आगे ले चलने वाली, सर्वनियन्ता, सारे अंतरिक्ष में व्याप्तमान कहते हैं ।   

यहां वेद यह बता रहे हैं कि उसी एक ईश्वर को हम भिन्न- भिन्न नामों से पुकारते हैं जब जब वो उस रूप मे प्रकट होते हैं।

संधि विच्छेद के बाद –

इन्र्द्रम्  मित्रम्  वरुणम् अग्निम् आहुः अथो इति दिव्यः सः सुऽपर्णः गरुत्मान् एकम् सत् विप्राः बहुधा वदन्ति अग्निम् यमम् मातरिश्वानम् आहुः ।

शब्दार्थ –

विप्राः - ज्ञानी जन, जो अपने को उत्तम भावनाओं से भरना चाहते हैं (वि+प्रा - भरना), इन्द्रम् -   सर्वैश्वर्यशाली, मित्रम् - सबके प्रति स्नेहमय, वरुणम् -श्रेष्ठ, अग्निम् -सबसे अग्रस्थान में स्थित, अग्रणी, आहुः - कहते हैं, अथ उ –और, सः -वह, दिव्यः - प्रकाशमय, सुपर्णः -पालन आदि महान कर्मों को करने वाले, गरुत्मान् - ब्रह्माण्ड के महान भार को उठाने वाले, एकम् – एक, सत् - सत्यरूप परमेश्वर,  बहुधा –भिन्न-भिन्न से, वदन्ति -कहते हैं, अग्निम् -आगे ले चलने वाली, यमम् – सर्वनियन्ता, मातरिश्वानम् -सारे अंतरिक्ष में व्याप्तमान, आहुः - कहते हैं, इति - वाक्य समाप्ति सूचक शब्द ।

शब्दशः अर्थ –

ज्ञानी जन सर्वैश्वर्यशाली, सबके प्रति स्नेहमय, श्रेष्ठ सबसे अग्रस्थान में स्थित कहते हैं, और, वह प्रकाशमय, पालन आदि महान कर्मों को करने वाले,  ब्रह्माण्ड के महान भार को उठाने वाले, एक सत्यरूप परमेश्वर भिन्न-भिन्न से कहते हैं, आगे ले चलने वाली सर्व नियन्ता, सारे अंतरिक्ष में व्याप्तमान कहते हैं ।

 

एक और वेद मन्त्र देखिये।

यो न: पिता जनिता यो विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा ।

यो देवानां नामधा ऽएक ऽएव तं सम्प्रश्नं भुवना यन्त्यन्या ॥ 

यजुर्वेद- अध्याय-17 मंत्र- 27

भावार्थ  –

जो (सृष्टिकर्ता परमेश्वर) हमारा जन्मदाता, सब पदार्थों को उत्पन्न करने वाला है, जो जगत का निर्माण तथा कर्मों के अनुसार फल देने वाला है, समस्त लोकों जन्म, स्थान व नाम को जानता है । जो (अलग-अलग नामों से पुकारे जाने के बावजूद समस्त) देवों के नामों को धारण करने वाला एक ही है, उस जानने योग्य प्रभु को दूसरे लोक (क्षेत्रों/सभ्यताओं) व सभी पदार्थ (भौतिक वस्तुएं और प्राणी समुदाय और हम मनुष्य भी)  अंतत: (केवल) उन को ही (प्राप्त हो) जाते हैं  । 

संधि विच्छेद के बाद –

यः न: पिता जनिता यो विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा ।

यः देवानां नामधा ऽएक ऽएव तं सम्प्रश्नं भुवना यन्त्यन्या ॥ 

शब्दार्थ –

यः - जो, न: - हमारा, पिता - जन्मदाता, जनिता - सब पदार्थों को उत्पन्न करने वाला, यो - जो,  विधाता - जगत का निर्माण तथा कर्मों के अनुसार फल देने वाला, विश्वा - समस्त, भुवनानि - लोकों, धामानि -जन्म, स्थान व नाम, वेद – जानता, यः -जो,  देवानां - देवों के, नामधा -नाम को धारण करने वाला, एक - एक, एव - ही, तं – उस को, सम्प्रश्नं - जानने योग्य को, अन्या - दुसरे, भुवना – लोक, सभी पदार्थ, यन्ति - जाते हैं ।   

शब्दशः अर्थ –

जो हमारा जन्मदाता, सब पदार्थों को उत्पन्न करने वाला, जो जगत का निर्माण तथा कर्मों के अनुसार फल देने वाला, समस्त लोकों जन्म, स्थान व नाम को जानता है । जो देवों के नाम को धारण करने वाला  एक ही है, उस जानने योग्य प्रभु को दुसरे लोक, सभी पदार्थ जाते हैं   

इसी बात को अथर्ववेद में भी बताया गया है।

स न: पिता जनिता स उत बन्धुर्धामानि वेदभुवनानि विश्वा ।

यो देवानां नामध एक एव तं संप्रश्नं भुवना यन्ति सर्वा ।।

अथर्ववेद- कांड-2 सूक्त-1 मंत्र- 3

भावार्थ      –

वह (सृष्टिकर्ता ब्रह्म ही) हमारे पालक (व) जन्म देने वाले (हैं) वह ही (हम) सबको प्रेम में बांधने वाले मित्र (हैं), (जो) समस्त सामर्थ्यों, स्थानों, नामों और मूल कारणों को (और) समस्त लोंको, पदार्थों  को जानते है । जो (स्वयं) समस्त देवों के नामों को (भी सर्वगुण सम्पन्न होने के कारण) धारण करने वाला एक ही है । उत्तम रीति से (उसी ब्रह्म के विषय में) प्रश्न पूछने के लिए उस को (ज्ञानी जन को) ही समस्त लोक और समस्त भूत वर्ग जाते हैं  ।

यहां वेद यह बता रहे हैं कि वह एकमात्र सृष्टिकर्ता ईश्वर स्वयं ही अलग अलग अनेकों देवों के नामों को धारण करने वाला एक ही है।

संधि विच्छेद के बाद –

सः न: पिता जनिता सः उत बन्धुः धामानि वेद भुवनानि विश्वा ।

यो देवानां नामध एक एव तं संप्रश्नं भुवना यन्ति सर्वा ।।

शब्दार्थ –

सः –वह, नः – हमारे, पिता –पालक, जनिता - जन्म देने वाले, उत्पादक, स – वह, उत –ही,  बन्धुः -सबको प्रेम में बांधने वाले, मित्र, सहायक, विश्वा –समस्त, धामानि – सामर्थ्यों  , स्थानों, नामों और मूल कारणों को, भुवनानि -समस्त लोंको, पदार्थों  को, वेद - जानते है,। यः –जो, देवानां - समस्त देवों के, नामधः -नामों को धारण करने वाले, एक –एक, अद्वितीय, एव् - ही है । संपश्रं -उत्तम रीति से प्रश्न पूछने के लिए, तं -उस को, सर्वा -समस्त, भुवना - लोक और समस्त भूत वर्ग, यान्ति - जाते हैं ।

शब्दशः अर्थ –

वह हमारे पालक जन्म देने वाले, वह ही सबको प्रेम में बांधने वाले मित्र है, समस्त सामर्थ्यों, स्थानों, नामों और मूल कारणों को, समस्त लोंको, पदार्थों  को जानते है । जो समस्त देवों के नामों को धारण करने वाले एक ही है । प्रश्न पूछने के लिए उस को समस्त लोक और समस्त भूत वर्ग जाते हैं ।

एक और वेद मन्त्र देखिये।

तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमाः। तदेव शुक्रं तद् ब्रह्म ता आपः स प्रजापतिः।।

यजुर्वेद- अध्याय-32 मंत्र-1

भावार्थ  –

वही एक सृष्टिकर्ता परमेश्वर भिन्न भिन्न रूपों में हमारे सामने आते हैं, उस का ही नाम अग्नि है, वही सूर्य हैं, वही वायु हैं, वही चन्द्रमा हैं, वही शुक्र हैं, वही ब्रह्म हैं, वही जल हैं, वही प्रजापति हैं ।

यहां वेद इस सत्य को और ज्यादा स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि हम जिन जिन ईश्वरीय शक्तियों को देव रूप में पूजा करते हैं, जैसे- अग्नि, आदित्य, वायु, चन्द्रमा, शुक्र, ब्रह्म, जल एवं प्रजापति आदि, वे सब उसी एक ईश्वर के ही भिन्न भिन्न नाम हैं, या ईश्वर जब जब जिस रूप में प्रकट हुआ है उस उस रूप के नाम हैं।

संधि विच्छेद के बाद –

तत् एव अग्निःतत् आदत्यिः तत् वायुः तत् ऊँ इत्यूँ चन्द्रमाः ।

तत् एव शुक्रम् तत् ब्रह्म ताःआपःसः प्रजाऽपतिः इति  प्रजाऽपतिः।।

शब्दार्थ –

तत् – वह, एव – ही, अग्निः – स्वयंप्रकाशित, सर्वत्र सर्वप्रकाशक, आगे ले-चलने वाले अग्नि है, तत् - वह, आदित्य: - सूर्य के समान तेजस्वी और समस्त संसार को प्रलय काल में अपने अन्दर लय करने वाले आदित्य है, तत् – वह, वायुः - अनन्त बलवान, सर्वप्राण एवं व्यापक होने से वायु है,  तत् – वह, उ – निश्चय ही, चन्द्रमाः - आनन्दित करने वाले चन्द्रमा है, तत् – वह, एव - ही, शुक्रम्ः -शुचि व उज्ज्वल शुक्र है, तत् – वह, ब्रह्मः – सबसे महान बृहत् ब्रह्म है, ताः – वे, आपः –सर्वव्यापक जल है, (आप् =व्याप्तौ), सः –वह, प्रजापतिः - समस्त प्रजाओं पालन व रक्षा करने वाले प्रजापति है । 

शब्दशः अर्थ –

वह ही अग्नि, वह आदित्य, वह वायु, वह चन्द्रमा, वह ही शुक्र, वह ब्रह्म, वे जल, वह प्रजापति हैं । 

अब प्रश्न यह उठता है कि वह कौन सी प्रक्रिया है जिस के अंतर्गत ईश्वर भिन्न भिन्न रूपों में हमारे सामने आते हैं ?

एषो ह देव: प्रदिशोनु सर्वा: पूर्वो ह जात: स उ गर्भे अन्त:  ।

स एव जात: स जनिष्यमाण: प्रत्यङ् जनास्तिष्ठति सर्वतोमुख: ॥

यजुर्वेद- अध्याय-32 मंत्र- 4

भावार्थ  –

यह उत्तम स्वरूप (सृष्टिकर्ता परमेश्वर) निश्चय से सब दिशा उपदिशाओं में व्याप्त हैं । भूतकाल में कल्प के आदि में निश्चय ही सर्व प्रथम  प्रकट हुए (थे) । वह ही (अभी) जन्म के लिए माता के गर्भ में अंदर हैं, वह ही (वर्त्तमान में भी) प्रकट (हो रहे) हैं (और) भविष्य में भी (सदा) वह (ही) प्रकट होने वाले हैं । हे मनुष्यों ! (वह) सबका द्रष्टा, प्रत्येक पदार्थों में (जड़-चेतन-प्राण मात्र व मनुष्यों में भी) व्याप्त होकर अवस्थित है ।

वेदों में यह बताया गया है कि वही सृष्टिकर्ता ईश्वर सब दिशा उपदिशाओं में व्याप्त हैं, वही चरों ओर प्रकट हो रहे हैं, जो भी प्राणी जन्म ले रहा है वह ईश्वर ही हैं, जो भी वस्तु प्रकट हो रहा है वह ईश्वर ही हैं और भविष्य में भी सदा वह ही प्रकट होने वाले हैं।

संधि विच्छेद के बाद –

एषःह देवः प्रऽदशिः अनु सर्वाःपूर्वः  ह जातः स उ गर्भे अन्त:  ।

सः एव जातः सः जनिष्यमाणः प्रत्यङ् जनाः तिष्ठति सर्वतोमुख: ।।

शब्दार्थ –

हे जनाः – मनुष्यों, ह –निश्चय से, एषः –यह, देवः -उत्तम स्वरूप, सर्वाः –सब,  प्रदशिः - दिशा उपदिशाओं में, अनु -अनुकूलता से साथ साथ,  व्याप्त होके, पूर्वः - भूतकाल में कल्प के आदि में सर्व प्रथम, ह – निश्चय ही, जातः -प्रकटता को प्राप्त होना, सः – वह, उ –ही, गर्भे - अभी जन्म के लिए माता के गर्भ में, अन्तः – अंदर, भीतर,  सः – वह, एव –ही, जातः - प्रकटता को प्राप्त होना, सः –वह, जनिष्यमाणः - भविष्य में भी प्रकट प्रकट होने वाले हैं, सर्वतोमुखः -सब ओर से मुखादि अवयवों वाला अर्थात मुखादि इन्द्रियों के काम सर्वत्र करता हुआ, सबका द्रष्टा,  प्रत्यङ् -प्रत्येक पदार्थ को व्याप्त होकर प्राप्त हुआ, प्रत्येक पदार्थ की आत्मा में, तिष्ठति -स्थिर है, अवस्थित हैं ।

शब्दशः अर्थ –

यह उत्तम स्वरूप निश्चय से सब दिशा उपदिशाओं में अनुकूलता से साथ साथ व्याप्त हुए हैं । भूतकाल में कल्प के आदि में निश्चय ही सर्व प्रथम  प्रकटता को प्राप्त हुए । वह ही जन्म के लिए माता के गर्भ में अंदर हैं, वह ही प्रकटता को प्राप्त हैं, भविष्य में भी वह प्रकट प्रकट होने वाले हैं । हे मनुष्यों ! सबका द्रष्टा, प्रत्येक पदार्थों में व्याप्त होकर अवस्थित है ।

इसका अर्थ है कि जिन ईश्वरीय शक्तियों की हम पूजा करते हैं, वह ईश्वरीय शक्तियां भी उसी एक ईश्वर का ही विभिन्न रूपों में प्रकटीकरण ही है।

अगर हम वायु देव की पूजा करते हैं तो वह भी उसी ईश्वर के एक रूप की ही पूजा है, अगर हम समुद्र देव की पूजा करते हैं तो वह भी उसी ईश्वर के एक रूप की ही पूजा है, अगर हम गंगा नदी की पूजा करते हैं तो वह भी उसी ईश्वर के एक रूप की ही पूजा है, अगर हम वट वृक्ष की पूजा करते हैं तो वह भी उसी ईश्वर के एक रूप की ही पूजा है, अगर हम कैलाश पर्वत की पूजा करते हैं तो वह भी उसी ईश्वर के एक रूप की ही पूजा है, अगर हम गाय की पूजा करते हैं तो वह भी उसी ईश्वर के एक रूप की ही पूजा है, अगर हम अपने गुरु (मनुष्य) की पूजा करते हैं तो वह भी उसी ईश्वर के एक रूप की ही पूजा है।

इसी तरह अगर कोई ईश्वर के किसी रूप का चित्र या मूर्ती बनाता है (कृपया ध्यान दें-सृष्टि का कोई भी वस्तु या आकृति या जीव, किसी भी चीज को ईश्वर का रूप माना जा सकता है) तो वस्तुतः उस चित्र या मूर्ती के अंदर पहले से ही निर्गुण-निराकार ईश्वर अवस्थित है। कोई उस चित्र या मूर्ती के अंदर स्थित ईश्वर को किसी साकार रूप में मान कर अगर आराधना करता है तो वह भी ईश्वर की ही आराधना कर रहा है। 

उस पूजन करने वाले आराधक को सिर्फ एक बात का ध्यान रखना होगा, कि, भले ही वह ईश्वर के किसी या भिन्न भिन्न रूप की आराधना कर रहा हो, वह वस्तुतः वह एक मात्र ईश्वर की ही आराधना कर रहा है। उसकी और उसके जैसे अनेकों पूजन करने वालों, सबकी आराधना की प्रार्थना उसी एक और सिर्फ एकमात्र सृष्टिकर्ता ईश्वर के पास जा रही है जो वस्तुतः निर्गुण एवं निराकार ईश्वरीय शक्ति है कोई व्यक्ति नहीं।

अब प्रश्न उठता है कि, ऐसा कैसे हो सकता है कि वही एक ईश्वर चारों ओर प्रकट हो रहा है ?

ऐसा इसलिए क्योंकि वेदों में ईश्वर को कोई व्यक्ति नहीं बताया गया है, ईश्वर कोई विशिष्ट आकृति और रूप रेखा वाला व्यक्ति नहीं वरन वह एक शक्ति है।

ब्रह्म जज्ञानं प्रथमं पुरस्ताद्वि सीमत: सुरुचो वेनऽ आव: ।

स बुध्न्याऽ उपमाऽ अस्य विष्ठा: सतश्च योनिमसतश्च वि व: ॥

यजुर्वेद- अध्याय-13 मंत्र- 3

भावार्थ  –

सृष्टि के आरम्भ में सबके उत्पादक और ज्ञाता, विस्तृत (महान) और विस्तारकर्ता, ब्रह्म (ईश्वरीय शक्ति), वह सूर्य जैसे  कान्त मान समस्त लोकों में व्यवस्था के रूप में व्याप्त हो कर (पूरे ब्रह्मांड का निर्माण करते हुए), समस्त रुचिकर तेजस्वी सूर्यो को विविध रूपों में प्रकट करता है । वह (सृष्टिकर्ता परमेश्वर) इस (जगत) के बतलाने वाले निदर्शक, नाना स्थलों में और नाना रूपों में स्थित, आकाशस्थ लोकों (सूर्य-चंद्र-पृथ्वी-नक्षत्र व सम्पूर्ण ब्रह्मांड) को भी और इस व्यक्त जगत के और अव्यक्त मूल कारण के आश्रय स्थल (आकाश) को भी प्रकट करता है । 

संधि विच्छेद के बाद -

ब्रह्म जज्ञानं प्रथमं पुरस्तात् वि सीमत: सुरुचो वेन आव: ।

स बुधन्या उपमा अस्य विष्ठा: सतः च योनिम् असतः च वि व: ।।

शब्दार्थ -

पुरस्तात्- सृष्टि के आरम्भ में, जज्ञानं- सबका उत्पादक और ज्ञाता,  प्रथमं- विस्तृत और विस्तारकर्ता, ब्रह्म- ईश्वरीय शक्ति, वेन - सूर्य जैसे  कान्त मान ईश्वरीय शक्ति, सीमतः -समस्त लोकों में व्यवस्था के रूप में व्याप्त हो कर, पूरे ब्रह्मांड के निर्माण करते हुए, सुरुचः- समस्त रुचिकर तेजस्वी सूर्यो को, वि आवः-विविध रूपों में प्रकट करता है, सः- वह, अस्य- इस के, उपमा- बतलाने वाले निदर्शक, विष्ठा-नाना स्थलों में और नाना रूपों में स्थित, बुधन्या-आकाशस्थ लोकों (सूर्य-चंद्र-पृथ्वी-नक्षत्र व सम्पूर्ण ब्रह्मांड) को भी,  सतः - इस व्यक्त जगत के, च -और , असतः - अव्यक्त मूल कारण के, च -और , योनिम् -आश्रय स्थल को, वि वः-प्रकट करता है । 

शब्दशः अर्थ –

सृष्टि के आरम्भ में सबके उत्पादक और ज्ञाता, विस्तृत और विस्तारकर्ता, ईश्वरीय शक्ति, वह सूर्य जैसे  कान्त मान, समस्त लोकों में व्यवस्था के रूप में व्याप्त हो कर, समस्त रुचिकर तेजस्वी सूर्यो को विविध रूपों में प्रकट करता है । वह इस के बतलाने वाले निदर्शक, नाना स्थलों में और नाना रूपों में स्थित, आकाशस्थ लोकों को भी और  इस व्यक्त जगत के और अव्यक्त मूल कारण के आश्रय स्थल को भी प्रकट करता है। 

चूंकि ईश्वर कोई व्यक्ति नहीं वरन एक आदि परम शक्ति हैं और किसी शक्ति या ऊर्जा का कोई रंग-रूप या आकृति नहीं होता है, इसी लिए वेदों में कहा गया है कि उस महान शक्ति ईश्वर की कोई एक विशेष मूर्ति या प्रतिकृति नहीं है या कोई विशिष्ट प्रतिमा नहीं है, क्योंकि सृष्टि में स्थित हर चीज उसी एक ईश्वर का ही रूप या प्रतिकृति हैं ।

न तस्य प्रतमिा अस्ति यस्य नाम महद्यशः ।

हिरण्यगर्भऽ इत्येष मा मा हिन्सीदित्येषा यस्मान्न जातऽ इत्येषः ।।

यजुर्वेद- अध्याय-32 मंत्र-3

भावार्थ  –

जिस सृष्टिकर्ता परमेश्वर को (महिमा का वर्णन करते हुए) सूर्यादि प्रकाशमान लोकों को धारण करने वाला (कहा गया) है, यह अनादि अजन्मा (कहा गया) है, यह अपने से हमें मत विमुख करे (इस प्रकार प्रार्थना किया गया है), जिसकी  प्रसिद्धि, कीर्त्ति बहुत बड़ी है, (लेकिन) उस (सृष्टिकर्ता परमेश्वर) की तुल्य (कोई भी एक विशेष) मूर्ति या प्रतिकृति नहीं है (क्योंकि सृष्टि में स्थित हर चीज उसी एक ईश्वर का ही रूप या प्रतिकृति हैं) ।

इसी लिए ऐसा कहा जाता है कि हिन्दू धर्म में कहा गया है कि कण कण में भगवान हैं, ईश्वर सर्वव्यापी हैं, हर जगह वर्तमान हैं, जहाँ ऐसा लगता है कि कुछ भी नहीं है वहां ईश्वर हैं। हम जानते हैं कि ऐसा तभी हो सकता है जब ईश्वर कोई व्यक्ति नहीं वरन परम शक्ति हों।

संधि विच्छेद के बाद –

न तस्य  प्रतिमा अस्ति यस्य नाम महत् यशः ।

हिरण्यगर्भः इति एषः मा मा हिंसित् इति एषा यस्मात् न जातः इति एषः ।।

शब्दार्थ –

न –नहीं, अस्ति –है,  तस्य -उस (परमेश्वर) की, प्रतिमा – मूर्ति या प्रतिकृति, यस्य – जिसकी, नाम – प्रसिद्धि,  यशः –कीर्त्ति, महत् – बहुत बड़ी, एषः – वह, , इति -इस प्रकार, हिरण्यगर्भः - सूर्यादि प्रकाशमान लोकों को धारण करने वाला, मा –मुझको, मा – मत,  हिंसीत् -ताड़ना दे या अपने से मुझ को विमुख मत करे, इति -इस प्रकार, एषा –यह, यस्मात् -जिस कारण, न –नहीं, जातः - जन्मा, इति -इस प्रकार, एषः -यह  ।

शब्दशः अर्थ –

नहीं है उस की उसके तुल्य प्रतिकृति या मूर्ति, जिसकी  प्रसिद्धि, कीर्त्ति बहुत बड़ी है । वह सूर्यादि प्रकाशमान लोकों को धारण करने वाला है, यह मुझको मत ताड़ना दे या अपने से मुझ को विमुख मत करे इस प्रकार, जिस कारण यह नहीं जन्मा इस प्रकार ।

अब प्रश्न उठता है कि इन निर्गुण निराकार आदि परम शक्ति का क्या दर्शन किया जा सकता है ? अगर हाँ, तो कैसे ?

यत्रा सुपर्णा अमृतस्य भक्षमनिमेषं विदथाभिस्वरन्ति ।

एना विश्वस्य भुवनस्य गोपाः स मा धीरः पाकमत्रा विवेश ।।

अथर्ववेद- कांड-9 सूक्त-14 मंत्र- 22

भावार्थ      –

जब उत्तम ब्रह्म ज्ञान वाली (उत्तम गति वाली इन्द्रियाँ) बिना पलक झपकाए (अर्थात दिन रात निरन्तर) ज्ञान प्राप्ति के लिए (उस अविनाशी नित्य) अमृतरस के भक्षण को (लक्ष्य कर के) (ज्ञान वाणियों का) उच्चारण करती हैं, (तब) इस( ज्ञान की वाणी) के( उच्चारण से) (वह) समस्त भुवनों का परिपालक, सबका धारणकर्त्ता (बुद्धि को प्रेरणा देने वाला सृष्टिकर्ता परमेश्वर) यहां (इस संसार में)( ज्ञान से) परिपक्व (मन वाले) (ज्ञानी मुमक्षु) मुझे प्राप्त होते हैं ।

यहां वेदों में यह बताया गया है कि ज्ञान प्राप्ति के लिए अनेकों प्रकार से प्रयत्न करके ज्ञान प्राप्त करने वाला उस ईश्वर को प्राप्त कर सकता है।

संधि विच्छेद के बाद –

यत्र सुपर्णाः अमृतस्य भक्षम् अनिमेषम् विदथा अभिस्वरन्ति ।

एना विश्वस्य भुवनस्य गोपाः स मा धीरः पाकम् अत्र आ विवेश ।।

शब्दार्थ –

यत्र – जब, सुपर्णाः -उत्तम ब्रह्म ज्ञान वाली, अनिमेषम् - बिना पलक झपकाए (अर्थात दिन रात निरन्तर), विदथा -ज्ञान प्राप्ति के लिए, अमृतस्य -अमृतरस के, भक्षम् – भक्षण को, उपयोग को, अभिस्वरन्ति - उच्चारण करती हैं, एना -इस के, सः -वह, विश्वस्य -समस्त, भुवनस्य -भुवनों का, गोपाः -परिपालक ,धीरः -धीर, सबका धारणकर्त्ता, अत्र -यहां, पाकः - परिपक्व वाले, मा - मुझे, आ विवेश - प्राप्त होते हैं ।

शब्दशः अर्थ –

जब उत्तम ब्रह्म ज्ञान वाली बिना पलक झपकाए (अर्थात दिन रात निरन्तर) ज्ञान प्राप्ति के लिए अमृतरस के भक्षण को उच्चारण करती हैं, इस के वह समस्त भुवनों का परिपालक, सबका धारणकर्त्ता यहां परिपक्व वाले मुझे प्राप्त होते हैं।

एक और वेद मन्त्र देखिये।

यानि त्रीणि बृहन्ति  येषां  चतुर्थ वियुनक्ति वाचम् ।

ब्रह्मैनद्  विद्यात् तपसा विपश्चिद्  यस्मिनेकं  युज्यते यस्मिन्नेकम् ।। 

अथर्ववेद- कांड-8 सूक्त-9-श्लोक-3

 भावार्थ      –

जो तीन (प्रकृति के तीन गुण सत्व, रज और तम) हैं (इस चराचर संसार के रूप में) बढ़ते हैं जिनका चौथा (इन तीनों गुणों संयोग से उत्पन्न प्रकृति को धारण करने वाला प्रभु) (वेदमयी) वाणी को प्रकट करता है । कर्म और ज्ञान के संचयी विद्वान् ब्रह्मवेत्ता अपने तप द्वारा उनको ब्रह्म (ही) जानें, जिस में एकमात्र (वही) समाधि द्वारा साक्षात् किया जाता है, (और) जिस में एक अद्वितीय है (ऐसा ही ज्ञान होता है) ।

संधि विच्छेद के बाद –

यानि त्रीणि बृहन्ति  येषाम्  चतुर्थम् वियुनक्ति वाचम् ।

ब्रह्मैनद्  विद्यात् तपसा विपश्चित् यस्मिनेकं  युज्यते यस्मिन्नेकम् ।। 

शब्दार्थ –

यानि -जो, त्रीणि -तीन हैं, वृहन्ति -विशाल, बढ़ते हैं, येषाम् - जिनका, चतुर्थम् -चौथा, वाचम् – (वेदमयी) वाणी को, वियुनक्ति -प्रकट करता है । विपश्चित्  –कर्म और ज्ञानों के संचयी विद्वान् ब्रह्मवेत्ता, तपसा -अपने तप द्वारा, एनत् - उनको, बह्म -ब्रह्म, विद्यात् – जाने, यस्मिन् –जिस में, एकम् – एकमात्र, युज्यते - समाधि द्वारा साक्षात् किया जाता है, यस्मिन् - जिस में, एकम् –एक अद्वितीय है ।

शब्दशः अर्थ –

जो तीन हैं, बढ़ते हैं, जिनका चौथा (वेदमयी) वाणी को प्रकट करता है । कर्म और ज्ञान के संचयी विद्वान् ब्रह्मवेत्ता अपने तप द्वारा उनको ब्रह्म जानें, जिस में एकमात्र समाधि द्वारा साक्षात् किया जाता है, जिस में एक अद्वितीय है ।

अतः हम देखते हैं कि वेदों में ईश्वर दर्शन के लिए ज्ञान प्राप्त करना और ध्यान व समाधि का ही रास्ता बताया गया है।

यह पूर्णतः सत्य के करीब प्रतीत होता है, क्योंकि आज हम सभी जानते हैं कि शक्ति या ऊर्जा को किसी भी भौतिक इन्द्रियों या किसी अन्य भौतिक मार्ग से देखा नहीं जा सकता है। ऊर्जा या शक्ति को सिर्फ उसके प्रभाव के द्वारा जाना या महसूस किया जा सकता है।

जब हम किसी वस्तु के बारे में बात करते हैं तो उस वस्तु को देखा जा सकता है, उसको छू कर उसके अस्तित्व को प्रमाणित किया जा सकता है, उसकी लम्बाई चौड़ाई को नापा जा सकता है। लेकिन जब उस वस्तु को "गरम है" ऐसा बताते हैं, तो यह तथ्य (उसका गरम होना) देखा नहीं जा सकता है, सिर्फ उसके तापमान के द्वारा महसूस किया जा सकता है या उसके तापमान को नापकर उसके गरम होने को प्रमाणित किया जा सकता है।

ठीक वैसे ही ईश्वर को भौतिक इन्द्रियों के द्वारा देखा नहीं जा सकता है, वरन, सिर्फ ध्यान और समाधि से, एक प्रकाशमान ऊर्जा के रूप में, अन्तःमन में, देखा जा सकता है। 

अब प्रश्न उठता है कि जिस ईश्वरीय शक्ति से सम्पूर्ण सृष्टि की रचना हुयी, जो निर्गुण निराकार है, उस ईश्वरीय शक्ति को हम ध्यान-समाधि से कैसे देख सकते हैं ?

ऐसा इसलिए, क्योंकि वेदों के अनुसार ईश्वरीय शक्ति सृष्टि के कण कण में अवस्थित है, हर सजीव निर्जीव में अवस्थित है, हर प्राणी के शरीर में अवस्थित है। अतः ईश्वरीय शक्ति हमारे शरीर में भी अवस्थित है,  

न तं विदाथ यऽ  इमा  जजानान्य्ध्युप्माक्मन्तरं  बभूव ।

निहारेण प्रावृत्ता  जल्प्यां  चासुतृप  ऽ  उक्थ्शासंश्चरन्ति ।।       

यजुर्वेद- अध्याय-17 मंत्र- 31

भावार्थ  – 

उस को (परमात्मा को) नही जान पाता, जो इन को (प्रजा को) उत्पन्न करता है, जीव-जगत से भिन्न होकर भी, तुम लोगों के ही भीतर रहता है ।  कुहरे के समान (अज्ञान के व्यापक) अन्धकार से अच्छे प्रकार से ढके हुये,  केवल बातें कहने वाले और मात्र प्राण-रक्षण  व पोषण लेकर संतुष्ट रहने वाले शब्द-अर्थ के खण्डन-मण्डन में व्यस्त विचरते है ।

संधि विच्छेद के बाद –

न तम् विदाथ यः इमा  जजान अन्यत  युष्माकम्   अन्तरम्  बभूव  ।

निहारेण प्रावृत्ताः जल्प्यां  च असुतृपः  उक्थ्शाशः चरन्ति ।।    

शब्दार्थ –

तम् - उस को, न - नहीं, विदाथ्  - जान पाता, यः - जो, इमा - इन को, जजान - उत्पन्न करता है, अन्यत् - जीव-जगत से भिन्न,  उष्माकंम् - तुम लोगों के, अन्तरम् - भीतर, बभूव - रहता है, निहारेण - कुहरे के समान अन्धकार से,  प्रावृत्ताः - अच्छे प्रकार से ढके हुये,   जल्प्यां - केवल बातें कहने वाले, च -और, असुतृपः - मात्र प्राण-रक्षण  व पोषण लेकर संतुष्ट रहने वाले, उक्थ्शाशः - शब्द-अर्थ के खण्डन-मण्डन में व्यस्त, चरन्ति  - विचरते है ।

शब्दशः अर्थ –

उस को नहीं जान पाता जो इन को उत्पन्न करता है, जीव-जगत से भिन्न तुम लोगों के भीतर रहता है, कुहरे के समान अन्धकार से अच्छे प्रकार से ढके हुये केवल बातें कहने वाले और मात्र प्राण-रक्षण व पोषण लेकर संतुष्ट रहने वाले शब्द-अर्थ के खण्डन-मण्डन में व्यस्त विचरते है ।

यहां वेदों में यह कहा गया है ईश्वर या कहें तो ईश्वरीय शक्ति इस स्थूल सृष्टि से भिन्न है क्योंकि यह प्रकृति तो हमारे इन्द्रियों द्वारा दिखती है पर ईश्वर को हमारे इन्द्रियों द्वारा देख पाना संभव नहीं। लेकिन यह ईश्वरीय शक्ति इस स्थूल सृष्टि से भिन्न होकर भी इसी स्थूल सृष्टि के अंदर भी अवस्थित है। यह ईश्वर या ईश्वरीय शक्ति प्राणी मात्र के भीतर भी अवस्थित है अतः ईश्वर हमारे, मनुष्यों के भीतर भी अवस्थित है।

एक और वेद मन्त्र देखें।

वेनस्तत् पश्यत् परमं गुह्य  यद् यत्र विश्वं भवत्येकरूपम् ।

इदं पृश्निरदुहज्जायमाना:स्वर्विदो अभ्यनूषत व्रा: ॥

अथर्ववेद- कांड-2 सूक्त-1 मंत्र- 1

भावार्थ      –

(ज्योतिर्मय प्रभु की महिमा को देखने वाला और उपासना करने वाला) ज्ञानी उस (सत्य, ज्ञान आदि लक्षण वाले सृष्टिकर्ता ब्रह्म) को साक्षात् करता है (जो) सर्वोत्कृष्ट है (और) जो हृदयरुप गुहा में आसीन है, जिस (ब्रह्म) में, यह सारा संसार (प्रलय काल में) एकाकार हो जाता  है। (उसी ब्रह्म के ही एक रूप से इस चराचर को) जन्म देती हुई यह प्रकृति, इसे (जगत को) अपने में से दूहती है, (उसको ध्येय रूप में) वरण करने वाले (मुक्त) जीव गण, आकाश में प्रकाशित तारे  (उस प्रभु की) स्तुति करते है  । 

यहां भी यही कहा जा रहा है कि ईश्वर हमारे ह्रदय रूपी गुहा में अवस्थित है।

संधि विच्छेद के बाद –

वेनः तत् पश्यत् परमं गुह्य यद् यत्र विश्वं भवति एकरुपम् ।

इदं पृश्निः अदुहत् जायमाना: स्वर्विदो अभी अनूषत व्रा: ॥

शब्दार्थ –

वेनः -ज्ञानी, तत् -उस को, पश्यत् - साक्षात् करता है, देखता है, परमम् -सर्वोत्कृष्ट है, यत् – जो, गुह्य -हृदयरुप गुहा में आसीन है, यत्र – जिसमें, विश्वम् -यह सारा संसार, एकरुपं – एक रूप, एकाकार, भवति - हो जाता है, जायमाना: -जन्म देती हुई, पृश्निः -यह प्रकृति, इदम् – इसे, अदुहत् -अपने में से दूहती है, ब्राः -वरण करने वाले जीवगण, स्वर्विदः -आकाश में प्रकाशित तारे, अभी अनूषत -स्तुति करते है  । 

शब्दशः अर्थ –

ज्ञानी उस को साक्षात् करता है, सर्वोत्कृष्ट है, जो हृदयरुप गुहा में आसीन है, जिस में, यह सारा संसार एकाकार हो जाता है। जन्म देती हुई यह प्रकृति इसे अपने में से दूहती है, वरण करने वाले जीवगण, आकाश में प्रकाशित तारे स्तुति करते है  । 

एक और वेद मन्त्र देखें।

द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परि षस्वजाते ।

तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभि चाकशीति ।।

अथर्ववेद- कांड-9 सूक्त-14 मंत्र- 20

भावार्थ      –

एकत्र रहने वाले एक दूसरे के मित्र, उत्तम ज्ञान और पालन व पूरण करने वाले, (वे दोनों दो पक्षियों के समान गतिशील जीव एवं परमात्मा) एक ही (शरीर रूपी, संसार रूपी) वृक्ष को आश्रय लेते है । उन दोनों में दूसरा (पक्षी जीव) संसार (रूपी वृक्ष के) पिप्पल फल (कर्म फल) (को) स्वाद लेकर मजा लेकर भोग करता है, (और) दूसरा, (प्रभु, परमात्मा अंश रूप में) (भोग न करता हुआ) चारों ओर (इन फलों को खाते हुए जीवों को) केवल देखा करता है (अर्थात दूसरा प्रभु परमात्मा केवल साक्षी रूप से, द्रष्टा रूप से विराजता है)।

यहां वेदों में बताया गया है कि ईश्वर प्राणियों में सिर्फ दृष्टा रूप में रहता है, जब कि जीव या जीवात्मा इस माया विश्व के भोगों, कर्म भोगों को भोगता है और जन्म-मृत्यु के चक्र में घूमता रहता है।

संधि विच्छेद के बाद –

द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परि षस्वजाते ।

तयोः अन्यः पिप्पलं स्वादु पिप्पलम् अत्ति अनश्नत अन्यः अभि चाकशीति ।।

शब्दार्थ –

सयुजा -एकत्र रहने वाले, सखाया -एक दूसरे के मित्र, सुपर्णा - उत्तम ज्ञान और पालन व पूरण करने वाले, समानं -एक ही, वृक्षम् -वृक्ष को, परि षस्वजाते -चिपटे रहते है, आश्रय लेते है । तयोः -उन दोनों में, अन्यः -दूसरा, संसार – संसार, पिप्पलम् - पिप्पल फल, स्वादु –स्वाद लेकर मजा लेकर, अत्ति -भोग करता है, अन्यः -दूसरा, अनश्नत -भोग न करता हुआ, अभि चाकशीति - चारों ओर, केवल देखा करता है ।

शब्दशः अर्थ –

एकत्र रहने वाले एक दूसरे के मित्र, उत्तम ज्ञान और पालन व पूरण करने वाले, एक ही वृक्ष को आश्रय लेते है । उन दोनों में दूसरा संसार पिप्पल फल स्वाद लेकर मजा लेकर भोग करता है, दूसरा, चारों ओर केवल देखा करता है ।

एक और वेद मन्त्र देखें।

तदेजति तन्नैजति तद्दूरे तद्वन्तिके । तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः।।

यजुर्वेद- अध्याय-40 मंत्र-5

भावार्थ  – 

हे मनुष्यों! वह (ब्रह्म) क्रिया करता (भी प्रतीत होता) है, (लेकिन) वह नहीं क्रिया करता (भी प्रतीत होता) है, वह (अधर्मात्मा अविद्वान से) दूर (होता) है, वह (धर्मात्मा विद्वान के) समीप (होता) है । वह इस सब जगत व जीवों के भीतर ही है, वह इस के सब जगत व जीवों के बाहर भी (विद्यमान) है (वह सर्वव्यापक है) ।

यहां भी ईश्वर को इस सब जड़-चेतन जगत के अंदर भी बताया गया है तथा साथ ही साथ ईश्वर को सबके बाहर, उसे आवृत किये हुए भी बताया गया है । ऐसा तभी संभव है जब ईश्वर एक शक्ति हो, व्यक्ति नहीं।

संधि विच्छेद के बाद –

तत् एजति  तत् न एजति  तत्  दू॒रे तत्  अन्तिके ।

तत् अन्तः अस्य सर्व॑स्य तत् उ सर्व॑स्य अस्य बाह्यतः ॥

शब्दार्थ –

तत् -वह, एजति –क्रिया करता है, तत् – वह, न - नहीं, एजति - क्रिया करता है, तत् –वह, दूरे –दूर है, तत् –वह, अन्तिके –समीप है, तत् –वह, अस्य –इस, सर्वस्य -सब जगत् वा जीवों के, अन्तः –भीतर है, उ –ही, तत् –वह, अस्य - इस के, सर्वस्य - सब जगत् वा जीवों के, बाह्यतः -बाहर है ।

शब्दशः अर्थ –

वह क्रिया करता है, वह नहीं क्रिया करता है, वह दूर है, वह समीप है । वह इस सब जगत् वा जीवों के भीतर ही है, वह इस के सब जगत वा जीवों के बाहर है ।

एक और वेद मन्त्र देखें।

प्रजापतिश्चरति गर्भे अन्तरजायमानो बहुधा वि जायते ।

तस्य योनिं परि पश्यन्ति धीरास्तस्मिन् ह तस्थुर्भुवनानि विश्वा ।।

यजुर्वेद- अध्याय-31 मंत्र- 19

भावार्थ  –

प्रजापालक परमात्मा गर्भ में स्थित जीवात्मा में और सबके हृदय में विद्यमान है, वह अजन्मा होकर भी अनेक रूपों में प्रकट होता है । उस (सृष्टिकर्ता परमेश्वर) की कारण शक्ति में संपूर्ण भुवन समाहित है । ज्ञानी-जन उनके मुख्य स्वरूप को सब ओर देख पाते हैं ।

यहां यह बताया गया है कि ईश्वर अजन्मा होकर भी अनेक रूपों में प्रकट होता है, वह गर्भ में स्थित जीवात्मा में और सबके हृदय में विद्यमान है। सिर्फ ज्ञानी-जन ही उनके मुख्य स्वरूप को सब ओर देख पाते हैं ।

संधि विच्छेद के बाद –

प्रजापतिरिति  प्रजाऽपतिः चरति गर्भे अन्तः अजायमानः बहुधा वि जायते ।

तस्य योनिम् परि पश्यन्ति धीराः तस्मनि् ह्॒ तस्थुः भुवनानि विश्वा ॥

शब्दार्थ –

अजायमानः -अपने स्वरूप से उत्पन्न नहीं होने वाला, अजन्मा, प्रजापतिः -प्रजा का पालक रक्षक, जगदीश्वर, गर्भे – गर्भ में स्थित,  गर्भस्थ जीवात्मा में,  अन्तः – अंदर, सबके हृदय में, चरति - विचरता है, विद्यमान है,  बहुधा -बहुत प्रकार से, वि – विशेष, विशेष रूपों में,  जायते - उत्पन्न होता है, प्रकट होता है, तस्य – उसके, योनमि् -स्वरूप को, धीराः -ध्यानशील जन, परि - सब ओर से, पश्यन्ति -देखते हैं, तस्मिन् –उसमें, ह – प्रसिद्ध , विश्वा –सब, भुवनानि -लोक-लोकान्तर, तस्थुः - स्थित हैं ।

शब्दशः अर्थ –

अपने स्वरूप से उत्पन्न नहीं होने वाला अजन्मा प्रजा का पालक रक्षक जगदीश्वर गर्भ में स्थित जीवात्मा में और अंदर सबके हृदय में विचरता है, विद्यमान है, और बहुत प्रकार से विशेष रूपों में उत्पन्न होता है प्रकट होता है । उसके स्वरूप को ध्यानशील जन सब ओर से देखते हैं उसमें ही प्रसिद्ध सब लोक-लोकान्तर स्थित हैं ।

एक और वेद मन्त्र देखें।

कुतस्तौ जातौ कतमः सो अर्धः कस्माल्लोकात् कतमस्याः पृथिव्याः ।

वत्सौ विराजः सलिलादुदैतां तौ त्वा पृच्छामि कतरेण दुग्धा ।। 

अथर्ववेद- कांड-8 सूक्त-9-श्लोक-1

भावार्थ      –

(प्रश्न है-) वे दोनों (जड और चेतन तत्व) कहाँ से पैदा हो गये ? वह कौन सा सर्वश्रेष्ठ ऋद्धिमान् सत्ता है (जिसने कि इन्हें जन्म दिया) ? किस लोक से, कौन से तत्त्व से, (जड और चेतना रुप ये विराट के दोनों बच्चे उत्पन्न हुए, प्रकट हुए) ? (उत्तर है-) विराट नाना रूपों से प्रकट होने वाले उस विशिष्ट दीप्ति वाले प्रभु से सलिल सर्वव्यापक पदार्थ से दोनों बच्चों के समान (ये जड़ और चेतना रुप प्रकट हुये) । (प्रश्न है-) उन दोनों (के विषय में) (हे ब्रह्म ज्ञानी) (मै) तुझसे प्रश्न करता हूँ (कि वह विराट गौ उन दोनों बछड़ों में से) किस से दुही जाती है (वेद ज्ञान प्राप्त होती है) ?

यहां यह बताया गया है कि जड और चेतन दोनों तत्व उस एक ईश्वर से ही प्रकट हुये हैं।

संधि विच्छेद के बाद –

कुतः तौ जातौ कतमः सःअर्धः कस्मात् लोकात् कतमस्याः पृथिव्याः ।

वत्सौ विराजः सलिलात् उत्  एताम् तौ त्वा पृच्छामि कतरेण दुग्धा ।। 

शब्दार्थ –

तौ -वे दोनों, कुतः -कहाँ से, जातौ -प्रकट हो गये, पैदा हो गये, प्रादुर्भूत हो गये, सः -वह, कतमः -कौन सा, अर्धः -परम सम्पन्नतम पद या स्वरूप है, सर्वश्रेष्ठ ऋद्धिमान् सत्ता है, कस्मात् -किस, लोकात् -लोक से, कतमस्याः –कौन से, पृथिव्याः -पृथिवी से, तत्त्व से, विराजः - विराट नाना रूपों से प्रकट होने वाले उस विशिष्ट दीप्ति वाले प्रभु से, सलिलात् -सलिल सर्वव्यापक पदार्थ से, वत्सौ -दोनों बच्चों के समान ये जड़- चेतना रुप, उत् एताम्-उदय हुए, प्रकट हुये। तौ -उन दोनों, त्वा -तुझसे, पृच्छामि -प्रश्न करता हूँ, कतरेण –किस से, दुग्धा -दुही जाती है ।

शब्दशः अर्थ –

वे दोनों कहाँ से पैदा हो गये ? वह कौन सा सर्वश्रेष्ठ ऋद्धिमान् सत्ता है ? किस लोक से, कौन से तत्त्व से ? विराट नाना रूपों से प्रकट होने वाले उस विशिष्ट दीप्ति वाले प्रभु से सलिल सर्वव्यापक पदार्थ से दोनों बच्चों के समान प्रकट हुये । उन दोनों, तुझसे प्रश्न करता हूँ किस से दुही जाती है ?

एक और वेद मन्त्र देखिये।

हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम् ।

योसावादित्ये पुरुष: सोसावहम् ओ३म् खं ब्रह्म ॥

यजुर्वेद- अध्याय-40 मंत्र- 17

भावार्थ  –

सोने जैसे ज्योतिःस्वरूप स्वर्णिम रक्षक पात्र (आवरण) से अविनाशी सत्य (आत्म और परमात्म तत्व) का मुख ढका हुआ है । (ऐसे सुनहरे पात्र के मुख का आवरण हटने पर यह पता लगता हैं कि) वह जो सूर्य्यमण्डल में पूर्ण परमात्मा (सृष्टिकर्ता परमेश्वर) (हैं), वह परोक्ष रूप से (आत्म रूप से) मैं हूँ । संपूर्ण ब्रह्माण्ड में वही परम शक्ति सबके रक्षक का नाम “ओ३म्” (संव्याप्त हैं) ।  

यजुर्वेद के इस मन्त्र में हर प्राणी को, हर मनुष्य को ईश्वर का ही प्रतिरूप बताया गया है। इस सृष्टि का जो जड़ पदार्थ है वह ईश्वर तत्व से ही निर्मित हुआ है और चेतन तत्व भी ईश्वर तत्व ही है। अतः जड़ पदार्थों (ईश्वरीय तत्व) से बना हुआ इस शरीर और चेतना (यह भी ईश्वरीय तत्व) से प्राणवान यह प्राणी या मनुष्य तो ईश्वर का ही प्रतिरूप हुआ।  

संधि विच्छेद के बाद –

हिरण्मयेन पात्रे॑ण सत्यस्य अपिहितम् मुखम् ।

यःअसौ आदित्ये पुरुषः सः असो अहम् ओ३म् खम् ब्रह्म ॥

शब्दार्थ –

हरिण्मयेन – सोने जैसे ज्योतिःस्वरूप स्वर्णिम, पात्रेण -रक्षक पात्र से, सत्यस्य - अविनाशी सत्य का, अपिहितम् - ढका हुआ है, मुखम् -मुख, यः -जो, असौ -वह, आदत्यिे - सूर्य्यमण्डल में, पुरुषः -पूर्ण परमात्मा, सः -वह, असो – परोक्ष रूप से, अहम् - मैं, खम् - संपूर्ण ब्रह्माण्ड, ब्रह्म -परम शक्ति, ओ३म् - सबके रक्षक का नाम ।

शब्दशः अर्थ –

सोने जैसे ज्योतिःस्वरूप स्वर्णिम रक्षक पात्र से अविनाशी सत्य का ढका हुआ है मुख, जो वह सूर्य्यमण्डल में पूर्ण परमात्मा, वह परोक्ष रूप से मैं हूँ, संपूर्ण ब्रह्माण्ड, परम शक्ति, सबके रक्षक का नाम “ओ३म्” ।

अब प्रश्न उठता है कि हमें ईश्वर दर्शन की अभिलाषा क्यों रखनी चाहिए, हमें ईश्वर की आराधना क्यों करनी चाहिए ?

माँ गायत्री को वेद माता माना गया है और गायत्री मन्त्र को हिन्दू धर्म का सर्वप्रमुख मन्त्र माना गया है। चलिए देखते हैं कि गायत्री मन्त्र में क्या कहा गया है।

ॐ भूर्भुवःस्वः । तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि । धियो यो नः प्रचोदयात् ।

यजुर्वेद- अध्याय-36 मंत्र- 3

भावार्थ  –

संपूर्ण सृष्टि को सूर्य से (निर्गत प्रकाश से) दीप्तिमान करने वाले, पूजनीय प्रभु का (हम) ध्यान करते हैं, वे (प्रभु) हमारी बुद्धि को (सत की ओर) प्रेरित करें ।

यहां हिन्दू धर्म का एक बहुत ही मूलभूत सत्य को कहा गया है कि, ईश्वर का ध्यान करने से, या, ईश्वर की आराधना से, सिर्फ हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में चलने की प्रेरणा मिलती है, लेकिन उस सत्प्रेरणा से सत्कर्म करने की जिम्मेदारी हमारी और सिर्फ हमारी है। ईश्वर कोई जादूगर नहीं है कि वह जादू की छड़ी घुमा कर हमारे सब कार्य सिद्ध कर देगा।

संधि विच्छेद के बाद –

ॐ भूः भुवः स्वः । तत् सवितु:  वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि । धियो यो नः प्रचोदयात् ।

शब्दार्थ –

भूः –पृथ्वी, भुवः - पृथ्वी के ऊपर का विश्व, स्वः -स्वयं का, मेरा, तत् –उसने, सवितु: -सूर्य से निर्गत, र्वरेण्यं -पूजा करना चहिये, या, पूजाके योग्य, भर्गो –दीप्तिमान, देवस्य –प्रभुका, धीमहि –ध्यान करे, धियो –बुद्धि, यो –जो, नः –हमारी, प्रचोदयात् -प्रेरित करे ।

शब्दशः अर्थ –

पृथ्वी, पृथ्वी के ऊपर का विश्व, स्वयं का उसने सूर्य से निर्गत पूजा के योग्य दीप्तिमान प्रभुका ध्यान करे । बुद्धि जो हमारी प्रेरित करे ।

एक और वेद मन्त्र देखें।

ज्येष्ठ्यं च मऽआधिपत्यं च में मन्युश्च में भामश्च मेंमश्च मेम्भश्च में जेमा च में महिमा ।

च में वरिमा च में प्रथिमा च में वर्षिमा च में द्राघिमा च में वृद्धं च में वृद्धिश्च में यज्ञेन कल्पन्ताम्  ।।

यजुर्वेद- अध्याय-18 मंत्र-4

भावार्थ  –

यज्ञ के फलस्वरूप मेरे  स्वामित्व, उत्साह, विस्तार, दीर्घ जीवन, बड़प्पन और मेरी श्रेष्ठता, दुष्टता के प्रति असहनशीलता, गंभीरता जीवनी शक्ति, विजय शीलता, प्रशंसा, बढ़ी हुयी प्रभुता, बढ़ोतरी की अभिवृद्धि हो ।

यहां हम देखते हैं कि वेदों में ईश्वर की आराधना (यज्ञ) के फलस्वरूप ज्यादातर व्यक्तिगत गुणों में वृद्धि होने की आकांक्षा व्यक्त किया गया है।  ऐसा इसलिए, क्योंकि सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा के आधार पर अगर कोई चलेगा तो सबसे पहले उसके व्यक्तिगत गुणों में सुधार होगा, व्यक्तिगत गुणों में विकास होगा और यह तो सभी को मालूम है कि एक बार व्यक्तिगत गुणों में श्रेष्ठता आ जाये तो मनुष्य बड़े बड़े श्रेष्ठ कार्य कर सकता है।

संधि विच्छेद के बाद –

ज्येष्ठयम् च में आधिपत्यम् च में मन्युः च में भामः च में अमः च में अम्भः च में जेमा च में महिमा ।

च में वरिमा च में प्रथिमा च में वर्षिमा च में द्राघिमा च में वृद्धम् च में वृद्धिः च में यज्ञेन कल्पन्ताम्  ।।

शब्दार्थ –

च - और, में - मेरी, ज्येष्ठयम् - श्रेष्ठता, च - और, में - मेरे , आधिपत्यम् - स्वामित्व, च - और, में - मेरे , मन्युः -उत्साह, च - और, में - मेरी, भामः - दुष्टता के प्रति असहनशीलता, च - और, में - मेरी, अमः -गंभीरता, च - और, में - मेरी, अम्भः -जीवनी शक्ति, च - और, में - मेरी, जेमा -विजय शीलता, च - और, में - मेरे , महिमा -महत्त्व, च - और, में - मेरी, वरिमा -प्रशंसा, च - और, में - मेरे , प्रथिमा - विस्तार, च - और, में - मेरे , वर्षिमा -दीर्घ जीवन, च - और, में - मेरे , द्राघिमा - बड़प्पन, च - और, में - मेरी, वृद्धम् - बढ़ी हुयी प्रभुता, च - और, में - मेरी, वृद्धिः -बढ़ोतरी, यज्ञेन -यज्ञ से,   कल्पन्ताम् - समर्थित होवे ।

शब्दशः अर्थ –

और मेरी श्रेष्ठता और मेरे  स्वामित्व, और मेरे  उत्साह, और मेरी दुष्टता के प्रति असहनशीलता और मेरी  गंभीरता और मेरी जीवनी शक्ति और मेरी विजय शीलता और मेरी महत्त्व और मेरी प्रशंसा और मेरे  विस्तार और मेरे  दीर्घ जीवन और मेरे बड़प्पन और मेरी बढ़ी हुयी प्रभुता और मेरी बढ़ोतरी यज्ञ से समर्थित होवे ।

एक और वेद मन्त्र देखें।

यशो मा द्यावापृथिवी यशो मेन्द्र्बृहस्पती । 

यशो भगस्य विन्दतु यशो मा प्रतिमुच्यताम् ।

यशश्व्या३स्याः संसदोऽहं प्रवदिता स्याम् ।।

सामवेद-प्रपाठक-6 दशति-3 मंत्र-10

भावार्थ  –

(ब्रह्मज्ञान से दीप्त मस्तिष्क रूपी) ध्युलोक तथा (पाषाण व वज्र तुल्य पार्थिव शरीर रूपी) पृथ्वी ( का) मुझे यश प्राप्त हो, सब बल कर्मों के  अधिष्ठाता देवता (इन्द्र) तथा ज्ञान के  अधिष्ठाता देवता (बृहस्पति) का (भी) मुझे यश प्राप्त हो । ऐश्वर्य-वीर्य-कीर्ति-श्री-ज्ञान और वैराग्य के देवता (भग देवता) का यश मुझे प्राप्त हो, यश मुझे छोड़ कर दूर न जाएँ, इस सभा का यशश्वी बन कर (ही) मैं उत्कृष्ट वक्ता बनूँ।

यहां यह भी कामना की गयी है कि मैं स्वयं को ऐसा श्रेष्ठ बनाऊं (जिसके लिए स्वयं ही चेष्टा करना पड़ेगा) जिससे ऐश्वर्य और कीर्ति प्राप्त हो सके। यहां ईश्वर से यह अपेक्षा नहीं किया गया है कि ईश्वर आकर के उस व्यक्ति की जगह काम करेंगे, या, ईश्वर काम करेंगे और वह व्यक्ति बैठा आराम करेगा।

यहां यह भी ध्यान देने की बात है कि स्वयं को ईश्वरीय रूपों (जैसे कि बल तथा कर्मों के देवता इंद्र एवं ज्ञान के देवता बृहस्पति) जैसा ही स्वयं की चेष्टा से बनाने की बात हो रही है। और उन ईश्वरीय रूपों जैसे यशश्वी कर्म एक दो बार नहीं वरन सारे जीवन वैसे श्रेष्ठ कर्म करने की अपेक्षा की गयी है।

संधि विच्छेद के बाद –

यशो मा द्यावा पृथिवी यशो मा इन्द्र बृहस्पति । 

यशो भगस्य विन्दतु यशो मा प्रतिमुच्यताम् ।

यशशा  अस्याः संसदः अहम् प्रवदिता स्याम् ।।

शब्दार्थ -

द्यावा - पृथ्वी से ऊपर का लोक, पृथिवी - पृथ्वी (का), मा - मुझे, यशो - यश प्राप्त हो, इन्द्र - सब बल कर्मों का अधिष्ठाता देवता, बृहस्पति- ज्ञान का अधिष्ठाता देवता (का), मा - मुझे, यशो - यश प्राप्त हो, भगस्य- ऐश्वर्य-वीर्य- कीर्ति- श्री- ज्ञान और वैराग्य के देवता का, यशो- यश, मा - मुझे, विन्दतु- प्राप्त हो,  यशः- यश, मा - मुझे, प्रति मुच्यताम्-छोड़ कर दूर न जाएँ, अस्याः- इस,  संसदः-सभा का, यशसा- यशश्वी बन कर, अहम्-मैं,  प्रवदिता- उत्कृष्ट वक्ता, स्याम्-बनूँ ।

शब्दशः अर्थ -

पृथ्वी से ऊपर का लोक तथा पृथिवी (का) मुझे यश प्राप्त हो, सब बल कर्मों के  अधिष्ठाता देवता तथा ज्ञान के  अधिष्ठाता देवता का (भी) मुझे यश प्राप्त हो । ऐश्वर्य-वीर्य-कीर्ति-श्री-ज्ञान और वैराग्य के देवता का यश मुझे प्राप्त हो, यश मुझे छोड़ कर दूर न जाएँ, इस सभा का यशश्वी बन कर (ही) मैं उत्कृष्ट वक्ता बनूँ ।

एक और वेद मन्त्र देखें।

यत्ते विश्वमिदं जगन्मनो जगाम दूरकम् । तत्त आ वर्तयामसीह क्षयाय जीवसे ।। 

ऋग्वेद- मण्डल -10 सूक्त-58  मंत्र-10

भावार्थ  –

(ईश्वर आशीर्वाद देते हुए कहते हैं कि) जो तेरा मन इस सम्पूर्ण संसार में (भूत भविष्य में) दूर दूर जाता है (भटकता है), तेरे उस (मन) को (वर्तमान में) लौटाते हैं, (ताकि) यहाँ निवास व गति के लिये (तेरा) जीवन (एकाग्रता की दिव्य शक्ति से भर कर) दीर्घ व उत्तम हो ।

यहां यह अपेक्षा की गयी है कि हर समय भूत काल के लिए पछताने वाला और भविष्य के लिए डरा हुआ भटकने वाला चंचल और  विचलित मन ईश्वर के द्वारा दिए गए सत्प्रेरणा से शांत और एकाग्रचित्त होकर वर्त्तमान की समस्यायों पर ध्यान देगा जिससे उसका जीवन एक श्रेष्ठ जीवन हो जायेगा। और यह तो सब को मालूम है कि एकाग्र चित्त मन से ही कार्य सफल होते हैं, हर समय निर्णय बदलने वाला चंचल प्रवृत्ति का व्यक्ति असफल ही होता है।

संधि विच्छेद के बाद –

यत्  ते विश्वम् इदम् जगत् मनः जगाम दूरकम् । ते तत् आवर्तायामसि इह क्षयाय जीवसे ।।

शब्दार्थ –

यत्  - जो, ते – तेरा, मनः – मन, इदम् – इस, विश्वम् – सम्पूर्ण, जगत् - संसार में, दूरकम् – दूर-दूर, जगाम - जाता है, ते –तेरे, तत् -उस को, आवर्तायामसि -हम लौटाते हैं, इह -यहाँ, क्षयाय -निवास व गति के लिये, जीवसे - जीवन दीर्घ व उत्तम हो ।

शब्दशः अर्थ –

जो तेरा मन इस सम्पूर्ण संसार में दूर दूर जाता है, तेरे उस को लौटाते हैं, यहाँ निवास व गति के लिये जीवन दीर्घ व उत्तम हो ।

एक और वेद मन्त्र देखें।

यस्मिन्त्सर्वाणी यस्मन्ति्सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद्विजानतः ।

तत्र को मोहः कः शोक ऽएकत्व मनुपश्यतः ।।

यजुर्वेद- अध्याय-40 मंत्र-7

भावार्थ  –             

हे मनुष्यों ! जब (ब्रह्मज्ञान की दशा में) विशेष ज्ञान दृष्टि से देखने वाले आत्मज्ञानी पुरुष को सब प्राणी मात्र अपने तुल्य ही हो जाते हैं वहां (उस दशा में), एक होने के भाव को देखने वाले को, कौन मोह (और) कौन शोक वा क्लेश होता है (अर्थात ऐसी स्थिति में व्यक्ति मोह एवं शोक से परे हो जाता है) ।

ईश्वर की आराधना के लिए ज्ञान प्राप्त करना एक मुख्य आवश्यकता बताया गया है जिससे ऐसा ज्ञानी व्यक्ति आत्मज्ञानी बन जाता है। आत्मज्ञानी बन जाने से व्यक्ति मोह एवं शोक से परे हो जाता है जो कि जीवन को आनंदमय बना देता है।

संधि विच्छेद के बाद –

यस्मिन् सर्वाणि भूतानि आत्मा एव अभूत विजानतः ।

तत्र कः मोहः कः शोकः एकत्वम् अनुपश्यतः॥

शब्दार्थ –

पदार्थः हे मनुष्यों! यस्मिन् –जब, विजानतः - विशेष ज्ञान दृष्टि से देखने वाले आत्मज्ञानी पुरुष को, सर्वाणि –सब, भूतानि –प्राणी मात्र, आत्मा – अपने तुल्य, एव - ही, अभूत् - हो जाते हैं, तत्र – वहां, एकत्वम् - एक होने के भाव को देखने वाले को, अनुपश्यतः - देखने वाले को, कः –कौन, मोहः – मोह, कः –कौन, शोकः -शोक वा क्लेश होता है ।

शब्दशः अर्थ –

जब विशेष ज्ञान दृष्टि से देखने वाले आत्मज्ञानी पुरुष को सब प्राणी मात्र अपने तुल्य ही हो जाते हैं वहां एक होने के भाव को देखने वाले को, कौन मोह कौन शोक होता है ।

एक और वेद मन्त्र देखें।

वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्  

तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेयनाय

यजुर्वेद- अध्याय-31 मंत्र- 18

भावार्थ  –

मैं इस महान (सूर्य के समतुल्य) प्रकाशवान,( अज्ञान के) अंधकार से रहित, (सर्वव्यापी) ईश्वर को जानता हूँ, जिनको जानने  के पश्चात् (ही) (उपासक) (दुखदायी) मृत्यु को लाँघ जाते हैं (मोक्ष प्राप्त करते हैं) । इससे भिन्न (और कोई)  मार्ग अभीष्ट स्थान (मोक्षप्राप्ति) के लिए नहीं विद्यमान है ।

संधि विच्छेद के बाद –

वेद अहम् एतम् पुरुषम् महान्तम् आदित्यवर्णं तमसः परस्तात् ।

तम् एव विदित्वा अति मृत्युम् एति न अन्यः पन्थाः विद्यते अयनाय ।।

शब्दार्थ –

अहम् - मैं,  एतम् -इस, महान्तम् - महान, आदित्यवर्णं – (सूर्य समतुल्य) प्रकाशवान, तमसः –(अज्ञान के) अंधकार से, परस्तात् - पृथक स्थित, रहित, पुरुषम् – (सर्वत्र पूर्ण) परमात्मा को, वेद -जानता हूँ, तम् –उसी को, एव - ही, विदित्वा - जान कर, मृत्युम् - दुखदायी मृत्यु को, अति -लाँघ कर, एति - जाते हैं, अन्यः -इससे भिन्न, पन्थाः -मार्ग, अयनाय - अभीष्ट स्थान (मोक्ष) के लिए, न -नहीं, विध्य्ते – विद्यमान है ।

शब्दशः अर्थ –

मैं इस महान सूर्य समतुल्य प्रकाशवान अंधकार से  पृथक स्थित परमात्मा को जानता हूँ, उसी को ही जान कर (दुखदायी) मृत्यु को लाँघ कर जाते हैं, इससे भिन्न  मार्ग  अभीष्ट स्थान  के लिए  नहीं विद्यमान है ।

ईश्वर को जानने का अर्थ है यह जानना कि ईश्वर सिर्फ द्रष्टा है और सिर्फ सत्प्रेरणा दे सकता है, ईश्वर को जानने का मतलब यह जानना है कि ईश्वर की आराधना का मतलब ईश्वर के उन ईश्वरीय गुणों को अपने व्यक्तित्व में उत्पन्न करना है, ईश्वर को जानने का मतलब यह जानना है कि ईश्वर की आराधना का मतलब ईश्वर के उन ईश्वरीय गुणों को अपने जीवन में अनुपालन करना है, ईश्वर को जानने का मतलब यह जानना है कि ईश्वर की आराधना का मतलब ईश्वर के उन ईश्वरीय गुणों को अपने व्यक्तित्व में उत्पन्न करके ईश्वरीय जीवन जी कर ईश्वर का सच्चा प्रतिरूप बन जाना है, और ईश्वर का सच्चा प्रतिरूप बन जाना ही मोक्ष प्राप्त करना है क्योंकि ईश्वर का प्रतिरूप बन जाने के बाद इस सृष्टि में और कुछ बाकी नहीं रह जाता है।

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